उड़ेल दिए क्या नमक के बोरे ,या चाँदी की किरचें बिछाई
लटके यहाँ- वहां रुई के गोले क्या बादलों की फटी रजाई
मति मेरी देख- देख चकराई |
डाल- डाल पर जड़े कुदरत ने जैसे धवल नगीने चुन- चुन कर
लगता कभी- कभी जैसे धुन रहे रूई को अम्बर में धुनकर
नग्न खड़े दरख्तों को किसने श्वेत- श्वेत पौशाकें पहनाई
मति मेरी देख देख चकराई |
सुन्न कम्पित नीर दूधिया संग लेकर बहती झेलम की धारा
तटों पर श्वेत आइस क्रीम सी बिखरी शून्य हुआ तल का पारा
जाने किसने झीलों को पारदर्शी कांच की चुनरी उढाई
मति मेरी देख- देख चकराई
सड़कें धुली- धुली क्षीर से हिम रजत से पर्वतों के ढके बदन
उज्जवल ,धवल चांदी उबटन से लिपटे हों जैसे उनके वदन
किरणों ने मस्तक जो चूमा उनका रवि की आँखें चौंधियाई
मति मेरी देख देख चकराई
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Comment
हार्दिक आभार प्रिय संदीप आपको रचना पसंद आई
आदरणीय लक्ष्मण जी हार्दिक आभार आपका आपने मेरी कल्पना और यात्रा के फलस्वरूप उपजे भावों को सराहा
आदरणीय सौरभ जी हर्षित हूँ की आपने मेरी कश्मीर यात्रा के दौरान उभरे हृदय के उद्द्गारों को सराहा ,जैसा देखा महसूस किया जो कल्पना की थी उससे भी अधिक निकला हार्दिक रूप से आभारी हूँ आपकी प्रतिक्रिया पाकर
श्वेत बर्फीला कश्मीर पढ़ कर ऐसा लगा जैसे मै ही कश्मीर की वादियों में भ्रमण कर रहा हूँ । अब आपकी रचना और चित्र से यह फिर सुखद अहसास हुआ है ।
सुन्न कम्पित नीर दूधिया संग लेकर बहती झेलम की धारा
तटों पर श्वेत आइस क्रीम सी बिखरी शून्य हुआ तल का पारा
सड़कें धुली- धुली क्षीर से हिम रजत से पर्वतों के ढके बदन
उज्जवल ,धवल चांदी उबटन से लिपटे हों जैसे उनके वदन
मति मेरी देख देख चकराई --------------सुन्दर भावाभिव्यक्ति, और सुन्दर चित्र के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया राजेश कुमारी जी
आदरणीय राजेश कुमारीजी, कश्मीर के इस सुन्दर शब्द-चित्र के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. दृश्य के अनुरूप मनोभावों को शब्द देते जाना उतना सहज नहीं होता जितना प्रतीत होता है. हिम-बगूलों को देख जहाँ नमक के बोरों के खुल जाने या रजाई के फट जाने या फिर धुनकी (धुनकर) द्वारा रुई धुनने आदि की कल्पना करना आपके अंतर में अबतक रमें चिर-शिशु का उत्फुल्ल व आह्लादित होना जताता है, वहीं उज्जवल ,धवल चांदी उबटन से लिपटे हों जैसे उनके वदन // किरणों ने मस्तक जो चूमा उनका रवि की आँखें चौंधियाई.. जैसी पंक्तियाँ अभिभूत करती प्रकृति-सुषमा को निरखती अनुभवी आँखों की संवेदनाएँ साझा करती हैं.
आप द्वारा हुई कश्मीर यात्रा को हमसब भी जी पाये, इस हेतु आपका धन्यवाद तथा रचना हेतु बधाई.
अशोक कुमार रक्तेला जी हार्दिक आभार आपका इन वादियों पर लिखे शब्द आपको पसंद आये
आदरेया राजेश कुमारी जी सादर, काश्मीर कि बर्फीली वादियों को आप किस तरह मन में बसा लायी हैं आपके गीत में दिख पड़ रहा है. बहुत सुन्दर गीत. सादर बधाई स्वीकारें.
प्रिय प्राची सच कहा वहां की ख़ूबसूरती मन में गहराई तक समा गई है मैंने हर मौसम में कश्मीर को देखा किन्तु जितना सुन्दर सम्मोहक इस वक़्त लगा पहले से कही ज्यादा अद्दभुत ,उसको आज कल अपने ब्लॉग पर सचित्र साझा कर रही हूँ वक़्त मिले तो जरूर पढियेगा दो पोस्ट हो चुकी हैंhttp://hindikavitayenaapkevichaar.blogspot.in/ हार्दिक आभार आपका
बर्फ की चादर ओढ़ी कश्मीर की वादियां और झेलम का सुन्दर शब्द चित्र,
मन में बसी प्रकृति की इस ख़ूबसूरती को शब्दबद्ध करने के लिए बधाई आदरणीय राजेश जी
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