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खामोश बही सरिता.

नदी चली पाथर से,बही मिली सागर से,

पवित्र सरिता जल संग निस्तार लिए/

प्रदूषित अकुलायी,बहती चली आयी,

अधजली मानव की लाशों का भार लिए/

 

बसे नगर औ बस्ती,ये थी उसकी हस्ती,

बसे कृपण मानव, मनोविकार लिए/

मनु ही न देखे भाले,मोड दिए गंदे नाले,

बही चली सरिता सब ही स्वीकार लिए/

 

लगे कल कारखाने,खुले कई मयखाने,

 मानव मदमस्त है,मन हुंकार लिए/

चली  ठिठकी नदिया,गाद भरी सदियाँ,

सुस्त पड़ी बही पर,मन चीत्कार लिए/

 

हुआ क्या री  तुझे  गंगा,रंग हुआ बदरंगा,

पूछे सागर चक्षु में,अश्रु की धार लिए/

कहे क्या दुःख हरिता,सागर घुली सरिता,

मानव कि गलती का,मन में भार लिए/

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Comment by Ashok Kumar Raktale on December 28, 2012 at 7:17pm

आदरणीय डॉ. अजय खरे जी एवं आदरेया डॉ. प्राची जी आप दोनों का हार्दिक आभार.

Comment by Dr.Ajay Khare on December 28, 2012 at 12:17pm

paryavarniya rachana sunder he aap badhai ke hakdaar he 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 28, 2012 at 10:33am

गंगा के आंसुओं को शब्द देने के लिए साधुवाद आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी ,

लोग जन हित याचिकाएं दायर करते रहें, सरकार तो गंगा एक्शन प्लान पर करोड़ों रूपया खर्च रही है... पर गंगा की स्थिति फिर भी दयनीय ही है ....क्या हो रहा है, सब जानते हैं... पर कैसे जीवन दायिनी माँ गंगा अपनी ज़िंदगी को पुनः पाए, ये एक बड़ा सवाल है.

पूछे सागर चक्षु में,अश्रु की धार लिए/

कहे क्या दुःख हरिता,सागर घुली सरिता,

मानव कि गलती का,मन में भार लिए/................हार्दिक बधाई इस वेदना को महसूस कर शब्द देने के लिए .

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 28, 2012 at 8:37am

आदरणीय प्रदीप जी,आद. सौरभ जी और आदरेया महिमा श्री जी आप सभी का हार्दिक आभार आपने देश की सबसे पावन नदी गंगा पर लिखी मेरी रचना के भाव को महसूस किया. आद. महिमा जी सच है जब तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं होगी गंगा के स्वरुप को पुनः पाना आसान नही है. आद. सौरभ जी की बात से मै पुरी तरह सहमत हूँ कि हम पहले और आज भी नदियों को माँ सद्रश्य मानते हैं मगर जिस तरह आज कई घरों में माताएं व्याकुल है उसी तरह नदियाँ भी हमारी करनी से गंभीर अवस्था में हैं. पुनः आप सभी का हार्दिक आभार.

Comment by MAHIMA SHREE on December 27, 2012 at 3:36pm

हुआ तुझे क्या री गंगा,हुआ रंग बदरंगा,

पूछे सागर सरि से,अश्रु की धार लिए/

कहे क्या दुःख हरिता,खामोश बही सरिता,

मानव कि गलती का,मन में भार लिए/...
आदरणीय अशोक सर , सोचने को विवश करने वाली रचना .. वाकई में क्या थी गंगा और क्या होगई .. क्षतिपूर्ति असम्भव है / बहुत -2 बधाई आपको संज्ञान में लाती सुंदर रचना के लिए /


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 27, 2012 at 3:11pm

आदरणीय अशोक भाई, आपकी रचना की तासीर कुछ अधिक ही हम प्रयागवासियों तक पहुँच रही है. इस बहुत ही अर्थपूर्ण, सामयिक और प्रभावोत्पादक कविता के लिए आपको मैं बार-बार धन्यवाद कह रहा हूँ.

क्या कहूँ, हम अच्छे थे जब अशिक्षित थे, गंगा ही नहीं सारी नदियाँ माँ सदृश थीं. तथाकथित शिक्षित क्या होगये, नदियों को बहता पानी समझ अपने वज़ूद से ही उलझ पड़े हैं. समझ में नहीं आता, इस हो रहे सर्वनाश का ज्ञान होते हुए भी इसके प्रति निर्लिप्तता किस रूप में साझा हो !? आपकी इस कविता के लिए आपका सादर धन्यवाद.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 27, 2012 at 2:54pm

सरिता की व्यथा निकली उर से मन भार लिए 

बह चले अश्रु झर झर यों मन सुन्दर उदगार लिए 

बधाई, 

आदरणीय अशोक जी, 

सादर 

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