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पेट के कहने में फिर हम आ गए

पेट के कहने में फिर हम आ गए 
पीठ पे ढ़ोने शहर , हम आ गए 
माँ ,बहन , भाई , पिता रिश्तें सभी 
छोड़ कर गाँव का घर हम आ गए -----------------
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ऑफिस का रिक्शा पापा का और मदिर वो घंटा - घंटी 
अम्मा की हर बात रटी थी हमको बरसों पंक्ति पंक्ति 
हंसी ठिठोली , गिल्ली - डंडा बाबा जी की घंती - मंती 
मास्टर जी का पाठ याद

 था , और दीदी की डंडा संटी 
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
तोड़ फोड़ कर बचपनके , सारे खिलौनें , रेत भर हांथों को ले कर 
छोड़ कर गाँव का घर , पीठ पे ढ़ोने शहर , हम आ गए 
,.,.,.,.,.,..,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.
आँगन की वो धुप , छाँव , गर्मी , सर्दी , बारिश हैं याद 
खट्टा,मीठा , कडुआ ,खारा जिह्वा पर सारे हैं स्वाद 
धुप सेंकती माँ का चेहरा , छाँव ढूँतें बाबा दायी 
गर्मी का पंखा सिन्नी का और सर्दी की एक रजाई 
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कतली, खीर, कसार, रवे का हलुआ, छोड़ कर आधा ही सफ़र 
पीठ पे ढ़ोने शहर , छोड़ कर गाँव का घर, हम आ गए 
,.,.,.,.,.,..,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.
हमको मिलता था उपहार जब आती गर्मी की छुट्टी 
सुबह सुबह उठने से ज्यादा इस्कूली बस्ते से मुक्ति 
बस इक होती थी बिनबोली , पापा से अपनी मनुहार
बरस बाद हो सुलभ हमें भी अम्मा की अम्मा का प्यार 
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पापड़,दवा,अचार के सौ सौ नुस्खे , अब कहा नानी , कहा नानी का घर 
पीठ पे ढ़ोने शहर , छोड़ कर गाँव का घर, हम आ गए 
,.,.,.,.,.,..,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.
माँ ,बहन , भाई , पिता रिश्तें सभी छोड़ कर गाँव का घर हम आ गए -----------------पेट के कहने में fir हम आ गए 
पीठ पे ढ़ोने शहर , हम आ गए 
माँ ,बहन , भाई , पिता रिश्तें सभी 
छोड़ कर गाँव का घर हम आ गए -----------------
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ऑफिस का रिक्शा पापा का और मदिर वो घंटा - घंटी 
अम्मा की हर बात रटी थी हमको बरसों पंक्ति पंक्ति 
हंसी ठिठोली , गिल्ली - डंडा बाबा जी की घंती - मंती 
मास्टर जी का पाठ याद
 था , और दीदी की डंडा संटी 
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तोड़ फोड़ कर बचपनके , सारे खिलौनें , रेत भर हांथों को ले कर 
छोड़ कर गाँव का घर , पीठ पे ढ़ोने शहर , हम आ गए 
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आँगन की वो धुप , छाँव , गर्मी , सर्दी , बारिश हैं याद 
खट्टा,मीठा , कडुआ ,खारा जिह्वा पर सारे हैं स्वाद 
धुप सेंकती माँ का चेहरा , छाँव ढूँतें बाबा दायी 
गर्मी का पंखा सिन्नी का और सर्दी की एक रजाई 
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कतली, खीर, कसार, रवे का हलुआ, छोड़ कर आधा ही सफ़र 
पीठ पे ढ़ोने शहर , छोड़ कर गाँव का घर, हम आ गए 
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हमको मिलता था उपहार जब आती गर्मी की छुट्टी 
सुबह सुबह उठने से ज्यादा इस्कूली बस्ते से मुक्ति 
बस इक होती थी बिनबोली , पापा से अपनी मनुहार
बरस बाद हो सुलभ हमें भी अम्मा की अम्मा का प्यार 
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पापड़,दवा,अचार के सौ सौ नुस्खे , अब कहा नानी , कहा नानी का घर 
पीठ पे ढ़ोने शहर , छोड़ कर गाँव का घर, हम आ गए 
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Comment by वीनस केसरी on December 6, 2012 at 1:08am

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