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अफ़सोस ''शालिनी''को खत्म न ये हो पाते हैं .

 

 

खत्म कर जिंदगी देखो मन ही मन मुस्कुराते हैं ,

मिली देह इंसान की इनको भेड़िये नज़र आते हैं .
 
तबाह कर बेगुनाहों को करें आबाद ये खुद को ,
फितरतन इंसानियत के ये रक़ीब बनते जाते हैं .
 
फराखी इनको न भाए ताज़िर  हैं ये दहशत के ,
मादूम ऐतबार को कर फ़ज़ीहत ये कर जाते हैं .
 
न मज़हब इनका है कोई ईमान दूर है इनसे ,
तबाही में मुरौवत की सुकून दिल में पाते हैं .
 
इरादे खौफनाक रखकर आमादा हैं ये शोरिश को ,
रन्जीदा कर जिंदगी को मसर्रत उसमे पाते हैं .
 
अज़ाब पैदा ये करते मचाते अफरातफरी ये ,
अफ़सोस ''शालिनी''को खत्म न ये हो पाते हैं .
 
 
शब्दार्थ :-फराखी -खुशहाली ,ताजिर-बिजनेसमैन ,
              मादूम-ख़त्म ,फ़ज़ीहत -दुर्दशा ,मुरौवत -मानवता ,
           शोरिश -खलबली ,रंजीदा -ग़मगीन ,मसर्रत-ख़ुशी ,
           अज़ाब -पीड़ा-परेशानी .
 
                             शालिनी कौशिक 
                                    [कौशल ]
 

 

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Comment by UMASHANKER MISHRA on October 25, 2012 at 11:40pm

एक गंभीर समस्या की तरफ ध्यानाकर्षित करती रचना 

आतंकी कारगुजारी का सुन्दर चित्रण 

सुन्दर भावों को सहेजे आतंक के विरुद्ध बिगुल फूंकती 

बहुत ही उम्दा रचना 

हार्दिक बधाई शालिनी जी 

Comment by shikha kaushik on October 25, 2012 at 11:20pm

आतंकवादियों  ने कितने  ही मासूमों   के खून   से होली  खेली  है .कितने ही घर उजाड़े  हैं .इनका  अंत  होना  जरूरी  है .सामयिक व् सार्थक  पोस्ट  हेतू   आभार  


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 25, 2012 at 9:21pm

सुन्दर कहन, अच्छा प्रयास है,

अफ़सोस ''शालिनी''को ये खत्म न ये हो पाते हैं .

इस पक्ति को फिर से देखें, दो बार ये -ये आना अर्थ को स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं | बधाई इस अभिव्यक्ति पर |

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