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कौन अपना कौन पराया

 

कौन अपने है कौन पराये

बात हमे ये

भ्रमित और झकजोर

क्यूँ जाए

विरह के जब

मेघ मंडराए

एकल बैठ के

हम अश्रु बहाए          

वेदना ने

बेहाल किया जब            

असहाए तब

स्वयं को पाए

जग की रीत

है बड़ी पुरानी

हर पीड़ित की

यही कहानी

व्यथा दे जब

हमें सताये

समक्ष स्वयं के

कोई न पाए

जीवन देता

सबक सिखायें

सत्य का तब

बोध करायें

अपना समय जब

फिर फिर जाएँ

धन लक्ष्मी

की कृपा पायें

अपने तो अपने

गैर भी तब 

अपनत्व का

फिर बोध करायें

प्रेम का ऐसे

ढोंग रचाए

दायित्व की फिर

दे दुहाई

कर्तव्य हमको

दिए गिनाये

स्मरण अपने

उपकार करायें

वक़्त-बे-वक़्त

जब अहसान जतायें

ये भी अपना

वो भी अपना

प्रेम मग्न हो

तो जग भी अपना

कथन करनी में

क्यूँ अंतर करना

मानव धर्म का

पालन करना

ऐसे शुद्ध हम

अपना हृदय बनायें

अपने अंतर्मन की

ध्वनि सुन

स्वयं को हम

परिपूर्ण करायें

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Comment

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Comment by Sanjay Rajendraprasad Yadav on September 27, 2012 at 10:08am

बहुत सुन्दर आपको बधाई ...पर पढ़ने के लिए कर्सर को बहुत परेशान करना पड़ा..!!

Comment by seema agrawal on September 26, 2012 at 7:19pm

वाह बहुत बढ़िया 

अपना हृदय बनायें

अपने अंतर्मन की

ध्वनि सुन

स्वयं को हम

परिपूर्ण करायें

छंदबद्ध न होते हुए भी यदि रचना में तुक रखने की कोशिश  की गयी है जो रचना को प्रवाह देती है ...बधाई फूल सिंह जी 

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