अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम|
जज्बातों कि लाश को सीढियाँ बना मंजिल तो पा ली,
पर क्या अब खुद को इन्सान कह सकते हैं हम|
अपनों की भीड़ में, अपनों को ढूंढ़ कर देख लिया,
अपना तो न मिला, खुद को भी खो बैठे हम|
हर एक रिश्ता बंध गया है, स्वार्थ की जंजीरों से,
न जाने कैसे दलदल में फंस गये हम|
ऐ खुदा ! तुझसे क्या शिकायत करें तेरी कुदरत को लेकर,
आज अपनी करतूतों से तुझे भी शर्मिंदा कर गये हम|
सुबह को उठकर शराब से जो मुंह धोते हैं रोजाना,
रात को कितनी पी, किससे हिसाब मांग रहे हम|
ये मत सोचना दोस्तों, सदा अफ़सोस करते हैं हालात पर,
अक्सर अपने आसुओं को मुस्कराहटों में बदला करते हैं हम
अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम |
Comment
आदरणीय रेखा जी,
अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम |
सुन्दर , विचारनीय रचना ! ऐसी ही रचनाओं की आज के समय में जरुरत है !
अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम |आज देश और समाज में जो हो रहा है, उसके लिए कोई और नहीं हम ही जिम्मेदार और शर्मसार है और हमें ही कुछ कदम उठाने होंगे, आशावादी रहकर | ऐसी रचनाओ की जरूरत है, जो आगाह करे कुछ करने को | अच्छी रचना बधाई
कविता एक कविता होती है --मनस-भावनाओं का अनयास संप्रेषण. इस अनायस संप्रेषण को ही बाद में संयत विधा का प्रारूप दिया जाता है. संप्रेषण का माध्यम अनगढ़ हो अथवा सुगढ़ उसका विशिष्ट हेतु होता है. उस हेतु के सधने बाद ही एक संप्रेषण को अनुशासन, व्याकरण या शास्त्रीयता का जामा देने की बात होती है ताकि उसका रूप साहित्य हो सके, उसकी पहुँच सार्वभौमिक बन सके. उस संप्रेषण का सार्वभौमिक होना ही उसे इस समाज का चेहरा व थाती हो जाने का अधिकार देता है.
रचनाकार के संप्रेषण को मात्र भावुक न हो कर उसे विधाओं की कसौटियों पर कसना ही होगा, चाहे तुक बद्धता की कसौटी पर अथवा अतुकांत की स्वतंत्रता और अलमस्ती की कसौटी पर.
सावीजी को इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ.
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