"आज तो आपने इनकी मांग पूरी कर दी, लेकिन कल इन्होने कोई और महंगी चीज़ मांग ली तब आप क्या करोगे ?"
"चिंता काहे करती हो भगवान्, अभी तो एक और किडनी मौजूद है मेरे शरीर में."
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मानवीय पीड़ा और वेदना को उकेरती सुंदर लघु कथा योगराज जी। बहुत उम्दा। बधाई हो !!
योगराज भाई जी,
प्रणाम है आपको
____बहुत ही ज्वलन्त, मार्मिक और कड़वी सचाई वर्णन की आपने........ दुर्भाग्य ये है कि हम इसे एक लघुकथा मान कर नहीं रह सकते....ये एक दर्पण है जो हमारे समाज में फैले एक घिनावने कोढ़ की तस्वीर दिखा रहा है .
____काश ! ये तस्वीर बदले.........आपकी लेखनी बधाई की पात्र है प्रभु !
अभी तो एक और किडनी मौजूद है मेरे शरीर में.
हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं ये पंक्तियाँ ! अच्छी रचना आदरणीय योगराज जी !
"चिंता काहे करती हो भगवान्, अभी तो एक और किडनी मौजूद है मेरे शरीर में."
आदरणीय योगराज जी ...ये दहेज़ दानव कहाँ दिल से बोझ उतरने देते हैं..इनकी मांग रक्त बीज का रूप ले ले आती रहती है ..आज भ्रूण हत्या का मुख्य कारण दहेज़ ही है ...इस का हर स्तर पर विरोध होना ही चाहिए ..कथा के अंत ने दिल निचोड़ कर रख दिया ...आज बेटियों को बेटों सा पढ़ाने लिखाने के बावजूद माँ बाप का इस तरह से लाचार होना, हाथ जोड़ उनके आगे गिड़गिडाना, हमारे समाज के पतन का कारण बन रहा है ....
आदरणीय सौरभ जी! आपका दूसरा कमेन्ट जो कि मेरी प्रतिक्रिया से सम्बंधित था, अब दिख नहीं रहा ....
लघु कथा की अंतिम पंक्ति हृदय को दहला गई. दहेज-दानव न जाने कितनी ही किडनियाँ पचा गया होगा.कन्या भ्रूण हत्या का मूल प्रेरक भी तो दहेज ही है.मर्मस्पर्शी कथा ने अंदर तक झकझोर कर रख दिया.
//यह तो आफ़्टर डिस्कशन मैटर है, आदरणीय. इस तथाकथित दवा के दुष्परिणाम भी आज समाज में चर्चा का विषय हैं. कई-कई बेटों के एक तरह से सभी पारिवारिक सदस्य किसी बेटी के क्रूर और लोलुप बाप की सान चढ़ सलाखों के पीछे परित्यक्त हुए पड़े हैं.//
आदरणीय योगराज जी, की उपरोक्त लघुकथा अपने आप में बेहतरीन व सम्पूर्ण है | इस हेतु उन्हें हम सभी की ओर से सादर नमन ! ऐसा तो पहले ही पहले ही कहा गया है आदरणीय सौरभ जी ! मेरे भाई .....आदरणीय योगराज जी तो एक ऐसे सिद्धहस्त कथाकार हैं जो इस लघुकथा को इस रूप में भी ढालकर और भी सशक्त व अत्यंत हृदयस्पर्शी बना सकते हैं खैर लघुकथा तो हो गयी अब तो आफ़्टर डिस्कशन ही चल रहा है ज़रा ध्यान से देखियेगा .....आदरणीया सविता सिंह जी ने भी इस बारे में कुछ लिखा है ....मेरे हुज़ूर ! दवा तो दवा ही होती है है, कहीं फायदा है तो कहीं दुष्परिणाम ............ कोई हालत से समझौता कर लेता है ...... तो कोई संघर्ष करके कामयाब भी होता है....शेष अपनी-अपनी नियति .... इस पर अनावश्यक बहस क्या करना ....... सादर
जय ओ बी ओ |
"अभी तो एक और किडनी मौजूद है मेरे शरीर में"
एक लाचार बाप का ये कथन समाज मे दहेज जैसी दानवी बुराई की शक्तियों के आगे बेबस होकर ही निकलता है।
एक सफल लघुकथा।
आदरणीय प्रभाकर जी ,सादर नमस्ते ,दहेज जैसी सामाजिक बुराई की आड़ में न जाने कितने परिवार इस आग में झुलसते रहें गे ,अपनी बेटी के चेहरे की इक मुस्कान के लिए एक बाप क्या नही कुर्बान कर सकता ,अपने जिस्म का एक एक अंग उस पर नौछावर कर सकता है |दिल को छू लिया इस लघु कथा ने ,आभार ,
दहेज़ जैसी विकृत सोच का आज भी यत्र तत्र जन मानस में होना और इसमें कन्या पक्ष को कामधेनु की तरह दूहना बेहद दुखद और सोचनीय है | किसी से कुछ पाने की प्रत्याशा के पृष्ठ में उसे खुद संगृहित न कर पाने की अक्षमता होती है पर हम यह नहीं समझते कि देने वाला उसे किन मूल्यों पर हासिल कर हमारी बात मानेगा | जब बात बेटी की हो तो हर पिता उसे हर हाल में सुखी देखना चाहता है | हमें विवाह योग्य परिवार को लालच के निकष पर और कठिनता से परखना होगा | ताकि आगे जीवन में यह लोभ-धार न बहती रहे और जलने मरने के दुस्वप्न न आते रहें |
इस दुखती रग पर हाथ रखने में आदरणीय श्री योगराज जी द्वारा लिखित यह लघुकथा सफल रही है और वह भी सशक्त स्वरुप में | जब तक बुराई है समाज को बार बार उसे रोकने का प्रयत्न करने को प्रेरित करती हैं ऐसी रचनाएँ | हार्दिक साधुवाद !!
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