गीत:
लोकतंत्र में...
संजीव 'सलिल'
*
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
संसद में गड़बड़झाला है.
नेता के सँग घोटाला है.
दलदल मचा रहे दल हिलमिल-
व्यापारी का मन काला है.
अफसर, बाबू घूसखोर
आशा न शेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति में नीति नहीं है.
नयन-कर मिले प्रीति नहीं है.
तुकबंदी को कहते कविता-
रस, लय, भाव सुगीति नहीं है.
दिखे न फिर भी तम में
उजियारा अशेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
Comment
इस अद्भुत सामायिक मारक गीत के लिए सादर बधाई और नमन स्वीकारें आदरणीय आचार्यवर....
राजेश जी, प्रदीप जी, गौरव जी, सौरभ जी, भावेश जी, आशीष जी , सुरेन्द्र जी, योगी जी, अलबेला जी आपकी गुणग्राहकता को नमन। मैं गायन कला से अनभिज्ञ हूँ. संगीत के कोइ जानकर बन्धु इसे स्वर दे सकें तो भी अलबेला जी की चाह पूरी हो सके।
आदरणीय संजीव सलिल जी..........
गीत तो गीत है सदैव आत्मतुष्टि देता है. परन्तु गीत को जब संगीत मिल जाता है तो वह पूरी तरह खिल जाता है . आपका यह गीत किसी संगीत अथवा स्वर का मोहताज़ नहीं है . फिर भी यदि यह गीत स्वरबद्ध हो कर जन जन तक पहुंचे......तो कुछ अलग ही बात होगी.
धन्य हैं आप......इतनी विद्रूपताओं को इतनी आकर्षक शैली में आपने सहज ही प्रस्तुत कर दिया ...आपको बार बार नमन !
राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति में नीति नहीं है.
नयन-कर मिले प्रीति नहीं है.
तुकबंदी को कहते कविता-
रस, लय, भाव सुगीति नहीं है.
दिखे न फिर भी तम में
उजियारा अशेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
___इससे ज्यादा क्या कहा जा सकता है..........जय हो सलिल जी की !
राजनीति में नीति नहीं है.
नयन-कर मिले प्रीति नहीं है.
तुकबंदी को कहते कविता-
रस, लय, भाव सुगीति नहीं है.
दिखे न फिर भी तम में
उजियारा अशेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
राजनीति के कुत्सित चेहरे को पेश किया आपने , बहुत खूबसूरत शब्द
राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
राजनीतिक कुटिल महल की कलई खोलती कटाक्ष भरी ...सटीक रचना ..........भ्रमर ५
वाह आचार्य जी, एक बार फिर से एक शानदार रचना आपने हमे दी। पूरी की पूरी खराब व्यवस्था को चोट मारती है।
राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
आचार्यवर, आपकी इस कविता की अंतर्धारा ही नहीं बल्कि पूरा का पूरा प्रवाह ही आजकी सत्तापरक घिनौनी व्यवस्था के प्रति क्रोध का प्रदर्शन है. यहीं कोई रचना जनरव बन जाती है जब सार्वभौमिक छटपटाहट को स्वर मिलता दीखता है.
सादर
आदरणीय सलिल सर, सत्य को दर्शाती रचना......बधाई
आदरणीय सलिल जी, सादर यही सत्य है , सत्य के सिवाय कुछ नहीं है, बधाई.
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