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मुफलिसी में दिन बिताने वाले 

पी के आंसू, घुड़कियाँ खाने वाले,

खोल आँखे, पहचान खुद को
कुछ और नहीं, सिर्फ शोषित है तू|
न किसी धर्म से है तू
न तेरी कोई भाषा,
तुझसे छलकती है
निशि-दिन निराशा|
नित नयी घोषणाओं ने 
किया तुझको पंगु,
बन के रह गया तू
बस एक पिछलग्गू|
बीपीएल के कटोरे में रोटी खाने वाले
आधे पेट खा के कुपोषित है तू,
खोल आँखें, पहचान खुद को
कुछ और नहीं, सिर्फ शोषित है तू|
महज वोट बैंक हैं कतारें तेरी
योजनाओं से छला जाता है तू,
आते हैं चुनाव, जीतते हैं नेता
पराजय की गर्त में चला जाता है तू|
होंगे एक-दो तेरी बिरादरी से
लाल बत्ती में चलते होंगे,
तेरी भलाई की सच्ची कोशिश से
देखता होगा वही जलते होंगे|
दो दिन काम करके, दस दिन बैठने वाले
कागज पर 'रोजगार मिला' घोषित है तू,
खोल आँखें, पहचान खुद को
कुछ और नहीं, सिर्फ शोषित है तू|
जुल्म होते हैं तुझपर
आन्दोलन खड़ा होता है,
निकला नया चेहरा
पिछले से बड़ा होता है|
हालात वही रहते हैं
ढंग बदल जाते हैं,
टोपी और झंडों के 
रंग बदल जाते हैं|
जाति की जमीन से उगनेवाली
घटिया मानसिकता से पोषित है तू,
खोल आँखें, पहचान खुद को
कुछ और नहीं, सिर्फ शोषित है तू|

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Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 4, 2012 at 10:54am

आदरणीया राजेश जी

आपका हार्दिक स्वागत है मेरी पोस्ट पर, आपके दिए समर्थन से ख़ुशी हुई.
Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 4, 2012 at 10:52am

सतीश जी सादर प्रणाम

ये इस वेबसाईट पर मेरी पहली रचना है, और इतने लोगों का प्यार देख के बहुत अच्छा लग रहा है. धन्यवाद. 
Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 4, 2012 at 10:47am

दुष्यंत जी, सादर !

आपके समर्थन से ख़ुशी हुई. आगे भी आशा के साथ धन्यवाद.
Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 4, 2012 at 10:42am

आदरणीय कुशवाहा सर,

सादर प्रणाम
हमेशा की तरह आपके कमेन्ट ने उत्साह बढाया. धन्यवाद.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 4, 2012 at 8:34am

जुल्म होते हैं तुझपर

आन्दोलन खड़ा होता है,
निकला नया चेहरा
पिछले से बड़ा होता है|
हालत वही रहते हैं
ढंग बदल जाते हैं,
टोपी और झंडों के 
रंग बदल जाते हैं|.....kya khoob kataksh kiya hai .saamayik rachna badhaai
Comment by satish mapatpuri on May 4, 2012 at 3:56am

प्रासंगिक एवं सामयिक रचना ..... गौरव साहेब , खुबसूरत प्रस्तुति है , और खुबसूरत बनाने की दिशा में रत रहें ... यही शुभकामना है

Comment by दुष्यंत सेवक on May 3, 2012 at 4:44pm

बीपीएल के कटोरे में रोटी खाने वाले
आधे पेट खा के कुपोषित है तू,
वाह भाई साहब. क्या तीखे शब्दों में बयान की है आम आदमी की स्थिति.. समसामयिक परिस्थितियों में अनुकूल रचना.. बधाई स्वीकारें

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 3, 2012 at 12:25pm

जाति की जमीन से उगनेवाली

घटिया मानसिकता से पोषित है तू,
खोल आँखें, पहचान खुद को
कुछ और नहीं, सिर्फ शोषित है तू|
स्नेही कुमार  जी, सादर 
वास्तविकता का वर्णन. सुन्दर रचना. बधाई. 

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