तोड़ो इन्हें की अब तो मुरझा रहे है फूल.
डाली पे रहते-रहते उकता रहे है फूल.
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जाते समय तो घर से जुड़े में हंस रहे थे
लौटते कदम है,कुम्हला रहे है फूल.
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ख़ुशबुओ का लेकर पैगाम साथ-साथ
दोनों दिलो क़े रिश्ते सुलझा रहे है फूल.
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देने को सब खड़े है बस आखरी सलाम.
मिटटी बनी है देह सुस्ता रहे है फूल.
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महका रहे थे महफ़िल रातो को देर तक.
घूरे की शान अब तो बढा रहे है फूल.
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अविनाश बागडे.
Comment
संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' ji,
शुक्रिया जनाब आपके सुझाव और दाद का.
rajesh kumari ji ह्रदय से आभार.
neeraj bhaiबहुत-बहुत आभार.
NEERJA ARORA jiशुक्रिया.
राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' ji बहुत-बहुत शुक्रिया.
PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA ...aabhar aapka.
"जब किसी संज्ञा को रदीफ बनाया जाता है तो ग़ज़ल में नवीनता आ जाती है "
जब किसी संज्ञा को रदीफ बनाया जाता है तो ग़ज़ल में नवीनता आ जाती है
सुन्दर भावाभिव्यक्ति के लिए सादर नमन
मान्यवर श्री अविनाश जी, वाह! बहुत खूब. हर एक शेर उम्दा, हार्दिक बधाइयाँ.
तोड़ो इन्हें की अब तो मुरझा रहे है फूल.
डाली पे रहते-रहते उकता रहे है फूल.
aadarniy avinash ji. sadar abhivadan. bahut sundar varnan pushpon ki sthiti ke anusar. badhai.
बहुत ही सुन्दर भाव और कहन बिलकुल फूलों की ही तरह! एक निवेदन था कि आपकी यह रचना नज़्म मानी जानी चाहिए कृपया पुनः विचार करें| सादर,
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