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चढ़ल जवानी कै उदल जब,देहिया गढ़ के ऊपर नाय।
नैना यकटक देखन लागे,पुरवा चले देह घहराय॥
चन्द्रमुखी जब तिरछा ताकै,तन के आरपार होइ जाय।
मारै मुस्की जब धीरे से,दिल कै टूक-टूक उड़ि जाय॥
उड़ै दुप्ट्टा जब कान्हे से,मानौ दुइ गिरिवर बिलगाय।
देख के गोरिक भरी जवानी,लरिके मंद-मंद मुस्काय॥
आओ पंचो प्यार कै आल्हा,सुनि लौ आपन कान लगाय।
अइसन मौका फिर जिन्गी में,शायद मिलै न कब्भो आय॥
जेका यह जिन्गी में कब्भो,प्यार के रोग लगा है नाय।
मानों वै मानो कै जोनी,आपन विरथा दिहिन गवाय॥
दादा माइ मिलैं जनमतै,गोरिया मिलै जनमतै नाय।
जब्बै भइय्या मौका पाओ,चउवा छक्का मारौ जाय॥

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2012 at 8:08pm
आभार आदरणीय कुशवाहा जी और संदीप जी,सराहना के लिए आभार।मैं ज्ञानी भी नहीं हूं और न ही आल्हा लिखने की तकनीकि मालुम है।मेरे गांव के पास शिव जी के मंदिर में आल्हा हो रहा था मैं भी सुनने गया था।आप सब गुरुजनों की कृपा से वहीं कुछ शब्दों को जोड़ लिया।बस यही आल्हा बन गया।मैंने कुछ नहीं किया है सर !मैं निर्दोष हूं।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 13, 2012 at 7:54pm

विन्ध्येश्वरी जी आपकी आल्हा काफी समझ में आ गई मैंने भी वीर रस में इस तरह की आल्हा अपने बुजुर्गों से सुनी थी हर पंक्ति में अंत में शब्द आय पर ख़त्म होता है यह भी एक रोचक छंद विद्या है |बहुत अच्छा लिखा है |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 13, 2012 at 7:41pm

आल्हा - अमूमन वीर रस की गाथाओं और कथ्यों के लिये सुप्रसिद्ध यह छंद आल्हा एक तरह का मात्रिक छंद है.  प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं, किन्तु सम चरण का अंत गुरु-लघु से समाप्त होता है.  कथ्य में अतिशयोक्ति की अतिशयता छंद का विशेष गुण है.  अक्सर राई को पहाड़ करके तथ्यों को कहने की परिपाटी है.

 

इस हिसाब से विन्ध्येश्वरी जी ने प्यार को मरक़ज़ में रख कर आल्हा के ताव को कुछ नरमाई देने की कोशिश की है .. ...  :-)))

कहीं-कहीं कोई शब्द अपने देसज रूप में होने के कारण भाषा से इतर क्षेत्र के पाठकों के लिये कठिनाई पैदा कर सकते हैं.  यथा, 

मानों वै मानो कै जोनी,आपन विरथा दिहिन गवाय॥

इस पंक्ति में ’मानो’ ’मानव’ शब्द का अप्रभंश है.

थोड़ा और प्रयास पूरे छंद को निर्दोष बना देता. लेकिन प्रयास बहुत ही सुन्दर हुआ है और अनुकरणीय है.

बहुत-बहुत बधाई विन्ध्येश्वरी जी.. !! 

हमें चौके-छक्के की अनुमति है ? !!.. ..  हा हा हा हा... .

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 13, 2012 at 1:52pm

अल्पज्ञानी होने के कारण ठीक से समझ नहीं पाया मगर जितना समझा वो बहुत ही अच्छा लगा त्रिपाठी जी| साभार,

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 13, 2012 at 10:19am

आल्हा लिखने की तमन्ना मेरी थी. तकनीकी नहीं मालूम है.  आपने लिखा . सीखने को मिलेगा. बहुत सुन्दर भाव पूर्ण अभिव्यक्ति. बधाई.

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