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मेरी कोख नहीं हुई

अभी तक उजली

क्योंकि उसने दी नहीं

मुझे, अभी तक एक बेटी

कहते हैं, बेटा बाप के

बुढ़ापे की लाठी होता है ।

लगती है पुरानी बात

मैं तो देखती हूँ

बेटियों को माँ-बाप के लिए

व्यथित होते

उनका दर्द, उनका संघर्ष समझते, और

बेटों को, अपने स्वयं के परिवार

या दोस्तों के साथ समय बिताते

गुलछर्रे उड़ाते

तब लगता है, काश !

मेरी भी एक बेटी होती ।

बेटी होती है माँ के करीब

कोख से बाहर आने के बाद

भी, उसी नाल से जुड़े होने का

एहसास कराती ।

माँ से जो मिली थी,

उसी मधुरता को वापस लौटाती

माँ के मन की व्यथा

बेटी से अधिक कौन समझेगा ?

बेटी पिता के भी, हो जाती है, करीब

जब, पिता उसे ‘‘हौसलों की उड़ान’’

का स्वाद चखाता है

सपनों से अलग दुनियां

के व्यवहार सिखाता है

अन्दर की दुनियां माँ को,

बाहर की पिता को,

समर्पित कर, बेटियाँ उड़ जाती हैं

पंछियों की तरह

किसी और की दुनियां आबाद करने

चली जाती हैं 

दूसरे कुल की रौनक बन

उसका वंश बढ़ाती हैं 

देहरी का दीप बनी रहतीं

फिर भी माँ के करीब

होती है बेटियाँ |


मोहिनी चोरडिया

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Comment

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Comment by asha pandey ojha on February 16, 2012 at 3:52pm

aseem dard se likhi gai rachna .. hardy ko chho gai 

Comment by mohinichordia on January 21, 2012 at 6:59am

धन्यवाद शुभम जी 

Comment by shubham jain on January 19, 2012 at 11:40am

अन्दर की दुनियां माँ को,

बाहर की पिता को,

समर्पित कर, बेटियाँ उड़ जाती हैं....


bahut hi sundar panktiyan...

aisa nahi hai ki bete apne mata pita k liye kuch nahi karte lekin betiyon ki to baat hi alag hai....


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 13, 2012 at 11:47am

इस संवेदनशील काव्य अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया मोहिनी जी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 12, 2012 at 2:35pm

इस भाव-प्रवण और तथ्यात्मक रचना के लिये हार्दिक बधाई, मोहिनीजी. कुछ बातें कितनी सनातन होती हैं लेकिन हम सहज स्वीकारते हिचकते हैं.  आपकी प्रस्तुत पंक्तियों को मैं विशेष रूप से रेखांकित कर रहा हूँ -

कहते हैं, बेटा बाप के
बुढ़ापे की लाठी होता है ।
लगती है पुरानी बात
मैं तो देखती हूँ
बेटियों को माँ-बाप के लिए
व्यथित होते
उनका दर्द, उनका संघर्ष समझते, और
बेटों को, अपने स्वयं के परिवार
या दोस्तों के साथ समय बिताते
गुलछर्रे उड़ाते
तब लगता है, काश !
मेरी भी एक बेटी होती ।

Comment by shashiprakash saini on January 12, 2012 at 2:29am

बहुत सुन्दर रचना है मोहिनी जी

बधाई स्वीकारे 

Comment by AVINASH S BAGDE on January 9, 2012 at 8:22pm

दूसरे कुल की रौनक बन

उसका वंश बढ़ाती हैं 

देहरी का दीप बनी रहतीं

फिर भी माँ के करीब

होती है बेटियाँ |...AAPNE TO BHAV-VIBHOR KAR DIYA मोहिनी JI.

Comment by AjAy Kumar Bohat on January 9, 2012 at 6:13pm

waah bahut khoob likha hai Mohini ji

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