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आजकल रातों के सन्नाटे मे भी शोर बहुत है...........

शाम ढली नही फिर भी अंधेरा घोर बहुत है...........




सुना था मोहब्बत पत्थर को मोम कर देता है..........


लगता है बस इक तेरा ही दिल कठोर बहुत है..............



अपने अपने दिल को रखना यारों संभाल के.............

इस शहर मे आजकल घूम रहे हँसी चोर बहुत है...............



लगता है आज फिर टपकेंगी बस्ती की कई छतें...................

आसमान मे देखो छाई ये घटाएँ घनघोर बहुत है.....................



ये तो तुम्हारी ही पतंग है जो ज़मीन छोड़ती नहीं................

वरना हमारे चरखे मे तो अब भी बची डोर बहुत है.............



कई आँधियाँ मिट गयी हमें मिटाने की चाहत मे ...............

लोग कहते है "मासूम" इन हवाओं मे ज़ोर बहुत है..............

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 1, 2010 at 11:49pm
ये तो तुम्हारी ही पतंग है जो ज़मीन छोड़ती नहीं,
वरना हमारे चरखे मे तो अब भी बची डोर बहुत है.
पल्लव जी अच्छी ग़ज़ल कहा है आपने, बहुत खूब, ऐसे ही लिखते रहे और अन्य रचनाओं पर भी अपना टिप्पणी जरूर दे, धन्यवाद,

कृपया ध्यान दे...

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"आ. अमित, ग़ज़ल पर आपकी बेहतरीन इस्लाह व हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिय:।"
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