मन से फक्कड़ संत वह, तन से रहा फ़कीर.
खड़ीं सामने रूढ़ियाँ, लड़ता रहा कबीर..
तेरह-ग्यारह नाप के, रचे हजारों छंद.
दोहे संत कबीर के, करे बोलती बंद..
पूजे लोग कबीर को, ले अँधा विश्वास..
गड़े कबीरा लाज से, दोहे हुए उदास..
थोडा बोलो चुप रहो, सुनो लगा कर कान.
छोटे मुख मै क्या कहूं, कह गए लोग सुजान..
कथ्य कला काया कसक, कागज़ कलम किताब.
सब मिल कर पूरा करे, ज्ञानदेव का ख्वाब..
अविनाश बागडे.
Comment
Saurabh ji,Siya ji,Bagi ji,Ambarish bhai..sabhi ka aabhar.
तेरह-ग्यारह नाप के, रचे हजारों छंद.
दोहे संत कबीर के, करे बोलती बंद..
पहली पंक्ति ’तेरह-ग्यारह...छंद’--
समझ चुके हैं तथ्य तो, इसे बाँधिये गाँठ
तेरह चौदह हों नहीं, बने न गिनती आठ ... :-)))
दूसरी पंक्ति ’दोहे संत... बोलती बंद’--
कैसे भाई कह दिया, दोहे कर दें चुप्प ?
अगर कबीरा को पढ़ें, रहे न मन में घुप्प !! ...
दिली बधाई आपको, है भाई अविनाश
दोहे सम्यक हैं बने, बढिया हुआ प्रयास..
wah bahut hi khoobsurat dohe kahe hain janab ...har ek doha ek achha sandesh liye hue hain...bahut hi khoobsurat soch wah...badhayi sweekaar kare hamari ...
वाह वाह, बेहतरीन दोहे, महापुरुषों को याद करने का एक बहाना दे जाते है ये दोहे, बधाई स्वीकार करे |
अच्छे दोहे हैं रचे, भाई जी अविनाश.
सारे सब ऐसे खिले, ज्यों हो खिले पलाश..
बहुत-बहुत बधाई आपको .........
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