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                    "व्यथा" 
ज़िन्दगी के सफ़र में ऐसा क्या ये हुआ 
ये कदम थे रुके मेरे, वक़्त चलता रहा 
जाने रूठा है मुझसे मेरा आईना 
यूँ ही चेहरे पे चेहरा दिखाता रहा 
संग चलते रहे सब यूँ ही राज़ लेकर 
उनके हर रंग को दिल से भुलाता रहा 
ये उनकी थी कोशिश या अपनी नादानी 
वो खेलते रहे मुझसे मैं चुप क्यूँ रहा 
करता तो है हिकमत क्यूँ वो किस्मत नहीं 
एक आस में दिल को यूँ ही मनाता रहा 
ऐसे ठहरना है फितरत यूँ न तेरा "रवि" 
है  हुआ क्या ? कि तु ऐसे ठहरता रहा 
                     अतेन्द्र कुमार सिंह 'रवि'

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on July 23, 2011 at 3:06pm
अतेन्द्र जी प्रयास और साहस की पहले तो सराहना करता हूँ | आपमें काफी संभावनाएं हैं और इस मंच पर आप अपने को निखार सकते हैं | लिखने के लिए पढना उर्जा का कार्य करता है | अतः पढ़िए और विधा की तकनीक को भी समझिये अभी इस जगह हम सभी विद्यार्थी ही हैं ! मुझे लग रहा है आपने ग़ज़ल कहने की कोशिश की है ! कृपया आपके शहर में कोई ग़ज़ल कार हो तो उससे रचना दिखा सकते है आवश्यक  मार्गदर्शन प्राप्त हो जाएगा | हार्दिक शुभकामनाएं |

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 23, 2011 at 1:25pm

अतेन्द्र जी, ख्याल बढ़िया है, प्रयास बढ़िया है , रचना को और भी कसने की जरूरत है, एक्स्ट्रा शब्दों के प्रयोग से रचना में बोझिलता आ जाती है | आप बढ़िया कर रहे है , और बढ़िया की उम्मीद है आपसे | 

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"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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