२१२ २२१२ १२१२
मै तो बलिहारी,अमीर हो गया
इश्क़ में रब्बा फकीर हो गया
***
मेरे रांझे का मुझे पता नही
बिन देखे ही मै तो हीर हो गया
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उसके जलवे यूँ सुने कमाल के
दिलको किस्सा उसका तीर हो गया
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शिवशिवा घट-घट मुझे पिलाओ अब
तिश्न मै वो गंग नीर हो गया
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उसको पहनूं धो सुखाऊँ रोज मै
लाज मेरी अब वो चीर हो गया
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गाऊँ कलमा मै सुनाऊँ दर-ब-दर
‘’जान’’ज्यूँ मै कोई पीर हो गया
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मौलिक व अप्रकाशित (c) ‘जान’ गोरखपुरी
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Comment
आदरणीय कृष्ण मिश्रा जी.
दिलकश व दिल को छूने वाली रचना. हार्दिक बधाई .
प्रिय कृष्ण
कोई किसी के बलिहारी जाता है जैसे बलि जाऊं मैं तात तुम्हारे .पर यही किसके आप बलिहारी है यह्लुप्त है दूसरे यह शब्द उला में फिट भी नहीं हो रहा . उला और सानी में रब्त भी नहीं है . एक और अमीरी का जश्न है दूसरी और फकीरी की घोषणा . मैं भी नौसिखिया ही हूँ पर मुझे ऐसा लगा. आप ऐसा लिख सकते है -
लोग कहते है अमीर हो गया
इश्क में मैं तो फ़कीर हो गया
देखे मे दे की मात्रा नहीं गिरेगी. और भी बाते हैं पर एक साथ नहीं .
आदरणीय कृष्णा भाई , गज़ल का बहुत सफल प्रयास हुआ है , आपको हार्दिक बधाई । आ. मिथिलेश भाई जी की बात का ख़याल कीजियेगा ॥
मुक्त हृदय से प्रसंशा के लिए धन्यवाद!आ० mahima shree जी!
वाह... लाजबाव... मजा आ गया बधाई. आपको
आ० मुझे तो केवल मतले के उला में बहर के साथ गठजोड़ करना पड़ा है, अस्ल में मतला ये हुआ था--
बलिहारी मै तो,अमीर हो गया
इश्क़ में रब्बा फकीर हो गया
हा में मात्रा गिराना संभव नही दिखा,और दूसरा कुछ रखना मन को भाया नही!
आदरणीय कोई सुझाव हो तो अवश्य दें!
आदरणीय कृष्ण भाई जी बह्र को खूब निभाया है, बधाई
मिसरों पर बह्र का दबाव महसूस हो रहा है. सादर
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