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रात्रि का अंतिम प्रहर घूम रहा तनहा कहाँ

थी ये वो जगह आना न चाहे कोई यहाँ

हर तरफ छाया मौत का अजीब सा मंजर हुआ

घनघोर तम देख साँसे थमी हर तरफ था फैला धुआं

नजर पड़ी देखा पड़ा मासूम शिशु शव था

हुआ जो अब पराया वो अपना कब था

कौंधती बिजलियाँ सावन सी थी लगी झड़ी

कौन है किसका लाल है देख लूं दिल की धड़कन बढ़ी

देखा तनहा उसे सर झुकाए समझ गया कि उसकी दुनिया लुटी

जल रही थी चिताएं आस पास ले रही थी वो सिसकियाँ घुटी घुटी

देती कफ़न क्या कैसे देती आग थे तार तार वस्त्र और उसके भाग्य

आस थी मिले कफ़न दूँ चिता लाल को दे न सकी हाय रे दुर्भाग्य

देख दशा उस लाल की प्रक्रति भी जार जार रोई

हो न ऐसा कभी ऐ खुदा चिता/कफ़न को भी तरसे कोई

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Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 18, 2012 at 5:28pm

स्नेही राकेश  जी. स्थिति स्पष्ट कर दी है. आगे ध्यान रखूंगा. आभार. 

Comment by RAJEEV KUMAR JHA on March 18, 2012 at 2:39pm

आदरणीय प्रदीप जी,बहुत सुन्दर कविता लिखी है.

देखा तनहा उसे सर झुकाए समझ गया कि उसकी दुनिया लुटी

जल रही थी चिताएं आस पास ले रही थी वो सिसकियाँ घुटी घुटी

बहुत ही भावपूर्ण पंक्तियाँ  हैं.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 18, 2012 at 2:38pm

 आदरणीय अश्वनी जी , वाहिद जी, प्रवीन  जी एवं समस्त ओ.बी.ओ. परिवार 

 सादर अभिवादन. 
महोदय , 
काव्य रचना- बेबसी
प्रथम बात मैं लेखक नहीं , ब्लागर हूँ. 
तकनीकि पक्ष की बिलकुल जानकारी नहीं. 
ओ.बी.ओ. में सीखने आया हूँ. 
आप प्रबुद्ध जनों से सदेव मेरा निवेदन रहा है आज भी है बगैर मेरी उम्र का ख्याल किये समीक्षा कर रचना को सुधारने की कृपा करें . ताकि  अच्छी रचना पटल पर रहे. मेरे इस संसार में न रहने पर भी उसे याद किया जाये. ये तभी संभव होगा जब आप लोग मेरे ऊपर ध्यान देंगे. 
बेबसी का आलम  ये है की लिखने के बाद भी सोचता रहा क्या मैं अपनी बात कह पाया या नहीं. शायद नहीं. 
शमशान वो जगह है जहाँ कोई जाना नहीं चाहता. घनघोर अँधेरी रात, मूसलाधार बारिश. शमशान में जलती चिताएं. मैं वहीँ पर हूँ. एक मासूम का शव है पर उसकी माँ के पास कफ़न चिता की व्यवस्था नहीं है. 
कृपया इस कविता को तराशने का कष्ट करें ताकि  ये पूर्ण हो सके. 
Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 18, 2012 at 12:13pm

आदरणीय प्रदीप जी,

दुर्दांत समाज में मानव की विवशता का मार्मिक चित्रण| राकेश जी और अश्विनी जी से मैं भी सहमत हूँ कुछ सन्दर्भ समझ नहीं आये| आभार,

Comment by अश्विनी कुमार on March 18, 2012 at 9:50am

स्नेही प्रदीप जी ,,सादर अभिवादन ,,अति भावपूर्ण काव्य ,जहां तक मेरा मानना है की काव्य हृदय के उन्मुकत उद्गार हैं जिसे किसी नियम में बांधना निर्मल भावनाओं के साथ अन्याय होगा ,,कविताओं पर कई प्रयोग हुए और मेरे समझ में शायद उसके सशक्त झंडाबरदार अज्ञेय जी थे जिन्होने कविता पर अनेकानेक प्रयोग किए उनके कई प्रयोग सफल भी हुए ||कहने का सार यही है कि अगर हृदय के उद्गार को समझने लायक भाषा में व्यक्त किया जाये और पाठक  उसका मर्म समझ सके तो काव्य सार्थक है ||......जय भारत

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 18, 2012 at 8:46am

माननीय प्रदीप जी, सादर नमस्कार. बहुत ही सुंदर कविता है. बहुत अच्छा प्रयत्न. कहीं कहीं सन्दर्भ मई नही समझ पाया.

कृपया ध्यान दे...

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