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ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं

.
सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं 
जहाँ मक़ाम है मेरा वहाँ नहीं हूँ मैं.
.
ये और बात कि कल जैसी मुझ में बात नहीं    
अगरचे आज भी सौदा गराँ नहीं हूँ मैं.
.
ख़ला की गूँज में मैं डूबता उभरता हूँ   
ख़मोशियों से बना हूँ ज़बां नहीं हूँ मैं.
.
मु’आशरे के सिखाए हुए हैं सब आदाब  
किसी का अक्स हूँ ख़ुद का बयाँ नहीं हूँ मैं.
.
सवाली पूछ रहा था कहाँ कहाँ है तू
जवाब आया उधर से कहाँ नहीं हूँ मैं?
.
परे हूँ जिस्म से अपने मैं ‘नूर’ हूँ शायद
बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं.
.
निलेश नूर 
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 238

Comment

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Comment by अजय गुप्ता 'अजेय on June 14, 2025 at 7:53pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है नीलेश नूर भाई। बहुत बधाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 13, 2025 at 5:26pm

आ. चेतन प्रकाश जी.
मैं आपकी टिप्पणी को समझ पाने में असमर्थ हूँ.
मगर 'ग़ज़ल ' फार्मेट में - इसे किस तरह समझा जाए..
आपका क़ाफ़िला वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध है  ..इस पर थोड़ा प्रकाश डालेंगे तो कृपा होगी 
.
सादर 
  

Comment by Chetan Prakash on June 13, 2025 at 10:20am

आदाब,'नूर' साहब, सुन्दर  रचना है, मगर 'ग़ज़ल ' फार्मेट में ! 

"परे हूँ जिस्म से अपने मैं 'नूर' हूँ शायद 

बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं" 

आपका क़ाफ़िला वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध है !

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