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(2122 2122 2122 212 )
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वाग्देवी माँ हमें अपनी शरण में लीजिए | 
ज्ञान के जलने लगें माता हृदय में अब दिए ||  
 
दर्द का सागर डुबाता है हमें मझधार में |  
किन्तु रचना प्रस्फुटित होती न इस संसार में | 
जो भटकती फिर रही उस लेखनी बल दीजिए | 
ज्ञान के जलने लगें माता हृदय में अब दिए ||  
   
शब्द में हो शक्ति दिल में पाक मैया भावना | 
प्रेम की गंगा बहे निष्पाप तन-मन कामना | 
द्वेष के बादल छँटें नहिं घृणा से कोई जिए | 
ज्ञान के जलने लगें माता हृदय में अब दिए || 
 
गिरि बहुत ऊँचे हुए माँ शारदा व्यवधान के | 
वन सघन षड्यंत्र पल-पल घूँट दें अपमान के | 
राज को दो नीति जन अन्याय का विष ना पिए | 
ज्ञान के जलने लगें माता हृदय में अब दिए || 
- शून्य आकांक्षी 
 
( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by नाथ सोनांचली on November 28, 2019 at 8:39pm

आद0 शून्य आकांक्षी जी सादर अभिवादन। 

कुछ बातों पर गौर कीजिए। मगर को म+गर या मग+र में किस तरह पढ़ते हैं।  इस पर गौर कीजिए। जब आप पढ़ेगी तो देखेगी की मगर को म+गर अर्थात इसकी मापनी 12 हुई। इसी तरह आपको अभी अभ्यास करना है। लेखन के लिए बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 27, 2019 at 5:58am

आ. शून्य आकांक्षी जी,रचना का प्रयास अच्छा है। हार्दिक बधार्ई स्वीकार करें । साथ ही भाई समर जी की बात पर पुनः विचार करें।

मगर की मापनी १२ है इसे 'किन्तु' करके ठीक किया जा सकता है।

भटकना' भी 122 है इसे प्रतिस्थापित करने का प्रयास करें।

सादर..

Comment by C.M.Upadhyay "Shoonya Akankshi" on November 27, 2019 at 2:06am

 आदरणीय  Samar kabeer साहब 
सादर प्रणाम | 
आप
ने मेरी लिखी सरस्वती वंदना पढ़ी, मुझे बहुत प्रसन्नता हुई | आपने मेरे प्रयास को सराहा और बधाई दी | आपका हार्दिक आभार सर | 


दी गई मापनी पर मैं अपने विचार आपके सामने रखने की कोशिष कर रहा हूँ :

 "मगर रचना प्रस्फु
टित होती न इस संसार में |"
मग (2) र (1) रच (2) ना (2)  प्रस् (2) फु (1) टित (2) हो (2)   ती (2) न (1 ) इस (2) सं (2)   सा (2) र (1) में (2)

  "भटकते कमजोर पीड़ित लेखनी बल दीजिए |" 
भट (2) क (1) ते (2) कम (2)  जो (2) र (1) पी (2) ड़ित (2)  ले (2) ख (1) नी (2) बल (2)   दी (2) जि (1) ए (2) 

सर मेरी टिप्पणी पर गौर फरमाते हुए मेरा मार्गदर्शन करने की कृपा करें | 
Comment by Samar kabeer on November 25, 2019 at 2:48pm

जनाब शून्य आकांक्षी जी आदाब,रचना का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'मगर रचना प्रस्फुटित होती न इस संसार में'

'भटकते कमजोर पीड़ित लेखनी बल दीजिए'

ये पंक्तियाँ दी गई मापनी पर नहीं हैं,देखियेगा ।

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