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मेरे घर के पास है, एक खुला मैदान,

चार दिशा में पेड़ हैं, देते छाया दान

करते क्रीड़ा युवा हैं, मनरंजन भरपूर

कर लेते आराम भी, थक हो जाते चूर

सब्जी वाले भी यहाँ, बेंचे सब्जी साज.

गोभी, पालक, मूलियाँ, सस्ती ले लो आज

कभी कभी नेता यहाँ, माइक पे चिल्लाय

सम्मुख बैठे भक्तजन, ताली खूब बजाय

हर आयु के लोग यहाँ, घूमे शुबहो शाम

स्वस्थ रहें संपन्न रहें, तभी मिले आराम

कभी कभी ही संतजन, अपना भजन सुनाय  

जो सज्जन गंभीर हैं, उनको ये सब भाय   

प्रीतिभोज के रश्म में. खाना जम कर खाय  

सोने के भी वक्त में, हल्ला गीत बजाय     

देता सबको ही शरण, यह छोटा मैदान

इसी लिए तो हम सभी, करते हैं गुणगान

यदाकदा स्वभाविक ही, होते हैं तकरार

फिर भी हम सहिष्णु रहें, करते कभी न वार

भारत यह मैदान है, भांति भांति के लोग.

कभी कभी होता घटित, कुछ अनिष्ट दुर्योग!    

.

(मौलिक व अप्रकाशित)

- जवाहर लाल सिंह  

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on November 26, 2015 at 5:57pm

आदरणीय दिग्विजय जी, रचना को पढ़कर आनंद मिला, जानकार खुशे हुई ..आपका हार्दिक आभार!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on November 26, 2015 at 5:55pm

आदरणीय नादिर खान साहब, सर्वप्रथम उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पाकर अभिभूत हुआ.

Comment by DIGVIJAY on November 26, 2015 at 1:09pm

रचना को पढ़ कर आनंद मिला, बधाई स्वीकारे ।

Comment by नादिर ख़ान on November 26, 2015 at 11:03am

आदरणीय जवाहर लाल जी सुन्दर गीत  के लिए बधाई स्वीकार करें....

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