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गाड़ी रुकते ही सामने से एक छोटी बच्ची अपने पीठ पर भाई को टांगे हुए लपकी । "बाबूजी , कुछ दे दो ना , भाई को भूख लगी है" , सुनते ही एक पल को तो दया आई लेकिन फिर न जाने क्यों क्रोध आ गया । "तुम लोग भी , इतनी कम उम्र में भीख मांगने लगते हो , पता नहीं कैसे माँ बाप हैं जो पैदा करके इनको सड़क पर छोड़ देते हैं"।
" चल बाबू , ये साहब भी भाषण ही देंगे , कुछ और नहीं दे सकते" और वो दूसरे गाड़ी की ओर बढ़ गयी ।

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on July 26, 2014 at 8:30pm

आभार सौरभजी एवम लक्ष्मण प्रसादजी..

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 26, 2014 at 4:43pm

दशा एखकर दया आना स्वाभविक है पर "व्यवसाय" बनते जा रहे रूप को देखकर क्रोध में नसीहत को "भाषण"

कहकर आगे बढ़ने की बढती प्रवर्ती घातक रूप से नासूर का तरह इस व्यवसाय को पनपा रही है, जिसके पीछे 

गिरोह तक सक्रिय देखे गए है | कहानी के जिरए इस बिंदु को उठाने की अच्छी कोशिश हुई है |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 26, 2014 at 3:40pm

हर तरफ़ प्रोफ़ेश्नलिज्म का बोलाला है.. ’मांगता है क्या ?’ स्टाइल में ! .. उस बच्ची ने भी ऐसा ही रूप अख़्तियार कर लिया है.. ’नो नॉनसेन्स टॉक प्लीऽऽज’  के तहत.

एक बढिया प्रस्तुति के लिए बधाई.

लघुकथा के पात्रों के संवादों में तनिक कसावट कुल-प्रभाव को विन्दुवत करती है. 

शुभेच्छाएँ

Comment by विनय कुमार on July 26, 2014 at 12:46pm

आभार जितेंद्रजी..

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2014 at 10:16am

बहुत ही बढ़िया बिंदु पर आपने अपनी रचना साझा कर, ध्यान आकर्षित किया है आदरणीय विनय जी. रचना पर बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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