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सब ही शरीफ हो गए।

अपने ही घर में देखो आज हम ज़लील हो गए।
तोहमतें लगाकर हम पर सब ही शरीफ़ हो गए।।1।।

पता ही ना चला वक्त मेरी बर्बादी का मुझको।
मेरे अपने ही दुश्मनों के कितने करीब हो गए।।2।।

जो हमारी ज़िन्दगी के थे सब राजदार कभी।
वह सब धीरे-धीरे मेरे ही देखो रक़ीब हो गए।।3।।

जो ना गए थे छोड़कर हमको यूँ वफ़ादारी में।
वो सब के सब ही मेरी तरह बदनसीब हो गए।।4।।

बचने की कोई गुंजाइश ना थी बेबस थे बड़े।
मेरे अल्फ़ाज़ ही मेरे खिलाफ जब दलील हो गए।।5।।

बड़ी मेहनत थी उनकी कैद में पढ़ने लिखनें में।
फंसे थे जो कानून के चंगुल में वो वकील हो गए।।6।।

मजाक ना बनाना यूँ कभी किसी भी गरीब का।
हसंती थी दुनियाँ जिनपे आज वो नज़ीर हो गए।।7।।

हमारी भी नवाबी का कभी दौर था शहर में।
बिन पैसों के आज हम देखो कितने गरीब हो गए।।8।।

ताज मोहम्मद
लखनऊ

मौलिक और अप्राकाशिक रचना।

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 1, 2023 at 12:34pm

आदरणीय ताज मोहम्मद जी 
वैसे तो आपने लिखा नहीं है कि आपकी रचना ग़ज़ल है लेकिन फ़ॉर्मेट से लगता है कि प्रयास ग़ज़ल कहने का हुआ है.
रचना ग़ज़ल के मानकों पर बहर. कहन और क़ाफ़िया में नाकाम हो रही है.
इन विषयों पर बहुत सामग्री मंच पर लिनक्स में उपलब्ध है.
अध्ययन करें.
प्रयास हेती शुभकामनाएं 
लिनक्स - http://www.openbooksonline.com/group/kaksha

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