मेरे घर में आँगन नहीं है,
देहरी और दहलीज नहीं है ,
दरवाजे से सांखल गायब ,
दस्तक देती तहजीब नहीं है ,
मेरा घर पत्थरों के शहर में बसता है
|
मेरे घर की पास की गलियां ,
जब तब रोतीं हैं बिन घूँघट के,
किसी के आने की उम्मीद लगाये,
रात को भी ये जागती रहती हैं ,
मेरा घर पत्थरों के शहर में बसता है
वर्तमान को पोषित करती भर्मित…
ContinueAdded by Er.vir parkash panchal on November 1, 2012 at 11:30am — 4 Comments
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