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गिरिराज भंडारी's Blog – August 2014 Archive (8)

दर सारे दीवार हो गए ( गीत ) गिरिराज भंडारी

दर सारे दीवार हो गए

**********************

सारी खिड़की बंद लगीं अब 

दर सारे दीवार हो गये

 

भौतिकता की अति चाहत में

सब सिमटे अपने अपने में

खिंची लकीरें हर आँगन में  

हर घर देखो , चार हो गये

 

सारी खिड़की बंद लगीं अब 

दर सारे दीवार हो गए

 

पुत्र कमाता है विदेश में

पुत्री तो ससुराल हो गयी

सब तन्हा कोने कोने में

तनहा सब त्यौहार हो गए

 

सारी खिड़की बंद लगीं अब 

दर सारे…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 25, 2014 at 8:30pm — 34 Comments

( ग़ज़ल ) जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं (गिरिराज भंडारी )

१२२२  १२२२ १२२२ १२२२

करेंगे होम ही, लेकर सभी आसार बैठे हैं

जिगर वाले जला के हाथ फिर तैयार बैठे हैं

ज़रा ठहरो छिपे घर में अभी मक्कार बैठे हैं

जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं

 

बहारों से कहो जाकर ग़लत तक़सीम है उनकी

कोई खुशहाल दिखता है , बहुत बेज़ार बैठे हैं

 

समझते हैं तेरे हर पैंतरे , गो कुछ नहीं कहते

तेरे जैसे अभी तो सैकड़ों हुशियार बैठे हैं

 

तुम्हें ये धूप की गर्मी नहीं लगती यूँ ही…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 9:30am — 32 Comments

दो क्षणिकाएँ ( गिरिराज भंडारी )

१-

जहाँ अश्रु की बूँदें

रोने वालों के दुखों को,

दुखों की सान्ध्रता को

कम कर देती है

 

वहीं पर यही अश्रु बूँदें

रोने वालों से भावनाओं से जुड़े

उनके अपनों को

बेदम भी कर देती है

 

२-

संयत नहीं हो पाए अगर आप

अपने भाव के साथ

तो वही भाव,

कहे गये शब्दों के अर्थ बदल देता है

 

और वहीं

अगर आप सही नहीं समझ पाए शब्दों को

तो शब्द,

आपके चहरे से प्रकट

भावों के…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 18, 2014 at 2:30pm — 25 Comments

अकड़न - अतुकांत -(गिरिराज भंडारी)

‘ अकड़न ’  

*********

जहाँ कहीं भी अकड़न है

समझ लेने दीजिये उसे

अगर वो ये सोचती है कि, दुनिया है , तो वो है

तो ये बात सही भी हो सकती है

और अगर वो ये सोचती है कि , वो है, इसलिए दुनिया है

तो फिर उसे देखना चाहिए पीछे मुड़कर

कि, कोई भी नहीं बचा है , ऐसी सोच रखने वालों में से

और दुनिया आज भी है ,

वैसे तो तुम्हारा होना बस तुम्हारा होना ही है , इससे ज्यादा कुछ नहीं

बस एक घटना घटी और तुम हो गए

एक और…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 13, 2014 at 9:30am — 17 Comments

प्रिये , सुनती हो ! ( अतुकांत ) गिरिराज भंडारी

प्रिये , सुनती हो !

मैने सुना है आक्सीजन और हाईड्रोजन तैयार हो गये हैं

अपने ख़ुद के अस्तित्व खो देने के लिये

और एक रासायनिक प्रक्रिया से गुजरने के लिये

ताकि मिल पायें एक दूसरे से ऐसे, कि फिर कोई यूँ ही जुदा न कर सके

और बन सके पानी , एक तीसरी चीज़

दोनो से अलग

 

प्रिये,सुनती हो !

अब वो पानी बन भी चुके हैं

कोई सामान्यतया अब उन्हे अलग नही कर पायेंगे

अच्छा हुआ न ?

 

प्रिये , सुनती हो !

क्यों न हम भी…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 10, 2014 at 8:55am — 20 Comments

पाँच दोहे - ( गिरिराज भंडारी )

कुछ भी कह लो मित्र तुम , विष जब आये काम

सिर्फ दोष अपने कहो , क्यों होते हैं आम

 

कौन काम को देख के , अब देता है दाम  

थोड़ा मक्खन, साथ में , है जो सुन्दर चाम 

 

सूर्य समय से डूब के , खुद कर देगा शाम

नाहक़ बदली हो रही , हट जा, तू बदनाम

 

सबकी मंज़िल है अलग , अलग सभी के धाम  

फिर क्यों छोड़ा साथ वो , पाता  है  दुश्नाम

 

हवा रुष्ट आंधी हुई , धूल उड़ी हर गाम  

कितने नामी के हुये , धूमिल सारे  नाम…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 6, 2014 at 9:00pm — 12 Comments

ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी - - कभी झेली भी है शर्मिन्दगी क्या

कभी  झेली  भी है शर्मिन्दगी क्या

***************************

 1222      1222       122

कभी खुद से शिकायत भी हुई क्या

कभी  झेली  भी है शर्मिन्दगी क्या

 

बहुत  बाहोश खोजे , मिल न पाये

मिला  देगी  हमें अब  बेखुदी क्या

 

ये क़िस्सा,  दर्द- आँसू  से बना है

समझ  लेगी  इसे आवारगी  क्या

 

अगर सीने में सादा दिल है ज़िन्दा

बनावट  बाहरी क्या, सादगी  क्या

 

ख़ुदा…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 1:30pm — 30 Comments

मेज़ के उपर सब कुछ शांत है , ( अतुकांत ) गिरिराज भंडारी

मेज़ के उपर सब कुछ शांत है

*************************

बड़ी सी मेज , साफ मेजपोश

ताज़े फूलों के गुलदस्तों सजी

करीने से लगी कुर्सियाँ

 

अदब से बैठे हुये अदब की चर्चा मे मशगूल

सभ्यता और संस्कृति की जीती जागती मूर्तियाँ

सामाजिक बुराइयों से लड़ते जो कभी न थके

सामाजिक उन्नति के नये-नये मानक गढ़ते 

सब कुछ कितन भला लग रहा है , मेज के ऊपर

सामान्यतया क़रीब से देखने में

लेकिन ,

जो दूर बैठा है उस मेज से

देख सकता है…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 3, 2014 at 1:30pm — 20 Comments

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"आ. भाई हरिओम जी, सादर आभार।"
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"आ. भाई हरिओम जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर बेहतरीन कुंडलियाँ छंद हुए है। हार्दिक बधाई।"
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