आध्यात्म के नाम पर शोषण
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भूतकाल में राजा और महाराजा लोग ‘ यज्ञ ‘ करके यह दर्शाया करते थे कि वे कितने बहादुर हैं परंतु यह भी शोषण करने की एक कला थी। उन्होंने बड़े बड़े मंदिरों का निर्माण अपने कुकर्मों को छिपाने के लिये कराया न कि भक्ति भाव से। बौद्धिक शोषण करने वाले तथाकथित पंडितों और भौतिक शोषण करने वाले राजाओं के बीच अपवित्र समझौता हुआ करता था जिसके अनुसार पंडित और पुजारीगण हर युग में अपने अपने राजाओं के गुणगान किया करते थे। इतना ही नहीं, उन के द्वारा राजा को ईश्वर का रूप घोषित कर दिया गया था। पंडिताई करना शोषण करने का दूसरा रूप ही था। यही कारण है कि पूंजीवाद इन पंडितों और पंडितलोग पूंजीवादियों के विरुद्ध कभी नहीं जा सकते। आज भी वे एक दूसरे का महिमामंडन और पूजन करते नहीं थकते। जन सामान्य के मन में हीनता का बोध कराने वाली और उनकी भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली अनेक अतार्किक कहानियाॅं और मिथक उन्होंने अपनी कल्पना से बना रखे हैं जिसका स्पष्ट उदाहरण इस श्लोक में दिया गया है-
ब्राह्मणस्य मुखमासीत वाहुराजनो भवत्,
मध्य तस्य यद् वैश्यः पदभ्याम शूद्रोजायत।
अर्थात् ब्राह्मण ईश्वर के मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य मध्यभाग से और और शूद्र पैरों से जन्मे। वे यदि सार्वजनिक हित साधन का चिंतन करते होते तो इसी बात को वे इस प्रकार भी कह सकते थे कि ईश्वर, बुद्धि और विवेक के रूप में सभी के मुह में, आत्म रक्षा हेतु शक्ति के रूप में भुजाओं में, शारीरिक पोषण हेतु व्यावसायिक कर्म करने के लिये शरीर के मध्य भाग में और सब के प्रति सेवा भाव रखने के लिये पैरों में निवास करता है।
यदि मानव संघर्ष के इतिहास में विप्रों को दूसरों पर आश्रित होकर अपने जीवन को चलाने की भूमिका निभाने वाला कहा जाये तो वैश्यों की भूमिका पारिभाषित करने के लिये तो शब्द ही नहीं मिलेंगे। विप्र और वैश्य दोनों ही समाज का शोषण करते हैं परंतु वैश्य शोषणकर्ता अधिक भयंकर होते हैं। वैश्य तो समाज वृक्ष के वे घातक परजीवी होते हैं जो उस वृक्ष के जीवन तत्व को ही चूसते जाते हैं जब तक वह सूख न जाये। यही कारण है कि पूंजीवादी संरचना में उद्योग या उत्पादन लोगों के ‘‘उपभोग की मात्रा‘‘ द्वारा नियंत्रित न किया जाकर ‘‘लाभ की मात्रा‘‘ के द्वारा नियंत्रित होता है ।
परंतु वैश्य परजीवी यह जानते समझते हैं कि यदि पेड़ ही मर जायेगा तो वे किस प्रकार बच सकेंगे इसलिये वे समाज में अपना जीवन बचाये रखने के लिये कुछ दान का स्वांग रचकर मंदिर, मस्जिद, चर्च , यात्री धरमशालायें, बोनस वितरण और गरीबों को भोजन आदि कराते हैं। विपत्ति तो तब आती है जब वे अपना सामान्य ज्ञान त्याग कर प्रचंड लोभ के आधीन होकर समाज वृक्ष के पूरी तरह सूख जाने तक शोषण करने लगते हैं। एक बार समाज का ढाॅंचा अचेत हो गया तो वैश्य भी अन्यों के साथ मर जायेंगे । नहीं, तो उनके द्वारा, इस प्रकार समाज को अपने साथ ले डूबने से पहले शोषित शूद्र, क्षत्रिय और विप्र मिलकर वैश्यों को नष्ट कर सकते हैं, प्रकृति का यही नियम है।
यह कितना आश्चर्य है कि समाज की समुचित व्यवस्था बनाये रखने के लिये ही व्यक्तिगत गुणों और कर्मों के अनुसार उसे चार भागों में विभाजित किया गया था ( चातुर्वर्णं मया सृष्टा गुणकर्म विभागशः ) परंतु स्वार्थवश हमने ही उनकी क्या गति कर डाली है। यहाॅं यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि गुणों और कर्मों के आधार पर किये गये इस प्रकार के सामाजिक विभागों में कोई भी किसी भी विभाग में जन्म लेकर अपने कर्मों में परिमार्जन कर अन्य विभागों में सम्मिलित हो सकता था और इस कार्य को सामाजिक मान्यता भी प्राप्त थी। इस बात की पुष्टि में यह उद्धरण पर्याप्त है ‘‘ जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते‘‘ अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं परंतु दिये गये संस्करों के अनुसार ही इसी जीवन में उनका फिर से जन्म होता है और उन्हें द्विजन्मा कहा जाता है। एक अन्य उद्धरण यह है कि एक ही वंश में उत्पन्न गर्ग, वसुदेव और नन्द परस्पर चचेरे भाई थे परंतु गर्ग ने विप्रोचित संस्कारों को ग्रहण कर अपने को ऋषि का, वसुदेव ने क्षत्रिय संस्कार उन्नत कर अपने को सेनापति का और नन्द ने वैश्योचित संस्कार पाकर पशुपालक का स्तर अपनाया और निभाया। आज के समाज ने एक ही विभाग में लाखों प्रकार की जातियों का समावेश कर शोषण की प्रवृत्ति को क्या और अधिक गहरा नहीं किया है? अब, यदि मानव समाज को अपना अस्तित्व बचाना है तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप में ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों नैसर्गिक गुणों को एक समान उन्नत कर आत्मनिर्भर होना होगा तभी वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है अन्यथा नहीं। जिस किसी में इन चारों गुणों का उचित सामंजस्य है उन्हें ही सदविप्र कहा जाना चाहिये।
मौलिक व अप्रकाशित
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आदरणीय टीआर सुकुल जी, आपकी विद्वता के प्रति नमन। किन्तु, इस आलेख का विन्दु-सूत्र भी काश आपने उद्धृत किया होता । कारण कि, कई तथ्य असहज समझ की परिणति प्रतीत हो रहे हैं। सर्वोपरि, आध्यात्म, धर्म, पंथ (सम्प्रदाय) और कर्मकांड के मध्य का अंतर बिना स्पष्ट किये कई तथ्य प्रस्तुत करने की चेष्टा अत्यंत भ्रामक कथ्य का कारण बन रही है। ऐसे विषयों के आलेखों को प्रस्तुत किये जाने के पूर्व क्या उचित नहीं होता कि तार्किक अध्ययन कर लिया जाता ? इससे ऐसा कोई आलेख चौंकाऊ और विवादास्पद हो जाने के हश्र को प्राप्त करने की जगह ज्ञानवर्द्धक हो जाता। कई विन्दु प्राचीन स्मृति से उद्धृत किये गये हैं जबकि मध्यकाल की घटनाओं के ओर इशारा करते हुए तथ्य प्रस्तुत किये गये प्रतीत हो रहे हैं। इस आलेख का शीर्षक ही मिथ्याभान का कारण हो रहा है। कारण कि, आध्यात्म के नाम पर शोषण हो ही नहीं सकता। इतिहास ग़वाह है कि सारा बवाल तो पंथ और कर्मकाण्ड की ज़िद भरी विवेचना के कारण मचा है। अब आध्यात्म और धर्म की गलत व्याख्या और अर्थ देकर अपनाये गये जुगुप्साकारी आचरणों का दोष इनके मत्थे मढ़ा जाय तो यह आध्यात्म और धर्म की गलती नहीं हो जाती न !
सादर
- आदरणीय सौरभ पांडे जी! अपनी त्वरित प्रतिक्रिया के लिये अत्यंत आभार।
- कृपा कर इसी मंच पर प्रस्तुत किये गये मेरे पुराने सभी आलेखों पर भी समय निकाल कर द्रष्टि डालने का कष्ट करें ताकि यह स्पष्ट हो सके कि प्रस्तुत आलेख भी उन्हीं के क्रम में ही है।
- आप भी इस बात से सहमत हैं कि आध्यात्म, धर्म, मत संप्रदाय, और कर्मकाॅंड आदि सभी को एक समान मानने की अपवित्र परंपरा चल रही है और समाज को इन्हीं के नाम पर भ्रमित किया जाकर वर्षो से शोषित किया जा रहा है। इसीलिये शीर्षक को ‘‘ आध्यात्म के नाम पर शोषण‘‘ लिखा गया है ।
- यथार्थ यही है कि आध्यात्म अपने आप तो कभी शोषण कर ही नहीं सकता क्यों कि वह आत्मानुसंधान का साधन है । परंतु स्वार्थ के वशीभूत होकर उसके नाम पर ही तो आडंबर फैलाया जाकर समाज को विकृत किया जा रहा है अतः मेरे विचार इसी विकृति को केन्द्रित कर अन्य विद्वानों के विचारार्थ प्रस्तुत किये गये हैं। इसलिये कृपा कर पुनः चिंतन कीजिये शीर्षक मिथ्याभिमान से कदापि प्रेरित नहीं है यह उन्हें सूचित कर रहा है जो इसकी आड़ में अपनी भ्रामक व्याख्या द्वारा स्वार्थसाधन में लगे हुए हैं।
- सादर, विनम्र आभार।
आदरणीय टी आर सुकुल जी,
बहुत साफ़ और सहस पूर्ण दंग से अपनी बात रखने के लिए आपका धन्यवाद. होता अक्सर ये है कि बहस को तथ्यों से भटकाने के लिए शब्दों की व्याख्या में उलझा दिया जाता है. ख़ास कर जब हिन्दू धर्म की बात हो तो धर्म, पंथ और सम्प्रदाय के बीच अंतर की बहस छेड़ दी जाती है. जब की जरूरत ये है कि उसकी कमजोरियों की स्पष्टता से व्याख्या की जाय और उन्हें दूर करने की कोशिश की जाय. आज कल आध्यात्म भी बिकने वाली चीज बन गया है . इसे हम रोज टी वी पर हम अन्य बाजारी वस्तुओं की तरह बिकते देख सकते हैं.
सादर
आदरणीय अनुज जी, इस मंच पर एक सीमा तक बकवास का भी स्वागत हुआ करता है. या तो आप समझ के साथ तर्क करें या समझने की कोशिश करें. या विन्दुवत इससे अधिक जानते हैं तो सुधारात्मक विवेचना दें.
आपकी कई (या संभवतः सभी) पोस्ट पर प्रबन्धन की दृष्टि है. जहाँ जैसी आवश्यकता बनती है, या बनेगी, उचित प्रत्युत्तर दिया जाता है. दिया भी जायेगा.
सादर
आदरणीय टीआर सुकुल जी के इस पोस्ट पर भी तुरत की टिप्पणी अनायास नहीं हुई है. मेरे कहे के प्रति आपकी सदाशयता के लिए हार्दिक धन्यवाद.
आपने मेरेकहे की टिप्पणी में कहा है -
//यथार्थ यही है कि आध्यात्म अपने आप तो कभी शोषण कर ही नहीं सकता क्यों कि वह आत्मानुसंधान का साधन है । परंतु स्वार्थ के वशीभूत होकर उसके नाम पर ही तो आडंबर फैलाया जाकर समाज को विकृत किया जा रहा है अतः मेरे विचार इसी विकृति को केन्द्रित कर अन्य विद्वानों के विचारार्थ प्रस्तुत किये गये हैं। //
या फिर,
//आप भी इस बात से सहमत हैं कि आध्यात्म, धर्म, मत संप्रदाय, और कर्मकाॅंड आदि सभी को एक समान मानने की अपवित्र परंपरा चल रही है और समाज को इन्हीं के नाम पर भ्रमित किया जाकर वर्षो से शोषित किया जा रहा है। //
ऐसी स्पष्ट दृष्टि के बाद भी आपका यह आलेख कई मायनों में हल्का-फुल्का जैसा क्यों हुआ इस पर घोर आश्चर्य है. आप अवश्य ही इससे बेहतर प्रस्तुति साझा कर सकते थे.
भारत का मध्यकालीन इतिहास कई विसंगतियों से यदि भरा दिखता है तो इसके कई कारण हैं. भारत का प्राचीन स्टेटस यदि इतना ही ग़लीज़ था तो लगातार शताब्दियों तक आततायी क्या झख मारने आते रहे थे ? किसी अनगढ़, असंस्कृत समाज में या भिखमंगों की बस्ती में लुटेरे जाते हैं क्या ? यदि गये भी तो एक बार में भाँडा फूट जाता है न ? कि, भिखमंगों की बस्ती में कुछ नहीं मिलने वाला. या, असंस्कृत असभ्य समाज से कुछ लाभ नहीं होने वाला. तो फिर, यह भाँड़ा शताब्दियों तक अक्षुण्ण बना रहा ? क्या भिखमंगों का या असंस्कृतों का प्रचार तंत्र इतना ताकतवर था ?
सोचने वाली बात है न ?
हम आत्महंताओं की मानसिक दुर्दशा से जितना बन सके बचने का प्रयास करें.
आपकी अन्य प्रस्तुतियों से अवश्य गुजरने का प्रयास करूँगा. आपका अनुरोध आदेश स्वरूप है. अलबत्ता समय सीमा तय नहीं कर सकता, आदरणीय.
सादर
आदरणीय सौरभ पांडे जी! इस आलेख में मेरा उद्देश्य इतिहास की घटनाओं की व्याख्या करना नहीं था। उद्देश्य यह था की भूतकाल में आध्यात्म की पवित्रता को किस प्रकार स्वार्थी तत्वों ने नष्ट किया है इसे स्प्ष्ट किया जाय। रही बात लेख को और अधिक अच्छा बनाए जा सकने की , तो वह मुझे मान्य है क्योंकि कोई भी रचना अपने आप में पूर्ण नहीं होती उसे समृद्ध करने की गुञ्जायस होती ही है। इसीलिए आज के युग में विद्वानों के बीच उसे विभिन्न कोणों पर तराशा जाना आवश्यक माना गया है। सादर।
आदरणीय टीआर सुकुल जी,
//इस आलेख में मेरा उद्देश्य इतिहास की घटनाओं की व्याख्या करना नहीं था। उद्देश्य यह था की भूतकाल में आध्यात्म की पवित्रता को किस प्रकार स्वार्थी तत्वों ने नष्ट किया है इसे स्प्ष्ट किया जाय। //
आप कोई टिप्पणी जब पढ़ें आदरणीय तो हठात प्रत्युत्तर न देने लगें. उस टिप्पणी पर मनन आवश्यक है.
आपने जब मेरी पहली टिप्पणी पर यह निवेदन किया, कि मैं आपके अन्य पोस्ट भी पढ़ूँ तो विदित हो, मैं अन्यान्य पोस्ट ही नहीं पढ़ गया होऊँगा. भारतीय आध्यात्म की अवधारणाओं पर कुत्सित प्रहार अनायास नहीं होने लगे हैं, आदरणीय. विशेष मानसिकता से ग्रसित एक पूरी जमात खड़ी की गयी है. बिना आवश्यक या उदार अध्ययन के, संशय और तिरस्कार के भाव के साथ वांगमय को पढ़ने के लिए उकसाया जाता है.
आप उपर्युक्त इंगित का संदर्भ ले कर अब मेरी टिप्पणी को देखिये तो प्रतीत होगा मैं कोई विन्दु क्यों सापेक्ष कर रहा हूँ. वर्ना आप लिख तो रहे ही हैं.
सादर
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