देवता, उपदेवता और अपदेवता
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अविद्यामाया के कुहरे में अज्ञानी और अंधविश्वासी लोग परमपुरुष को नहीं देख सकते। अनेक लोग ‘उपदेवता ‘ को भय के कारण या किसी प्रकार की भौतिक इच्छाओं की पूर्ति होने के लालच में उन्हें पूजने लगते हैं। जैसे, बानबीबी या दक्षिणा राय (बंगाल में), वनदेवी (उत्तर और मध्यप्रदेश में) को लोगों ने इस आशा में मान्यता दे रखी है कि वह देवी शेर जैसे जंगली जानवरों से उनकी रक्षा करेगी। ‘‘हैजा‘‘ की महामारी से बचने के लिये ‘ओलाइ चंडी‘ और ‘‘बड़ी माता‘‘ की बीमारी से बचने के लिये ‘शीतला देवी‘ साॅंपों के भय से बचने के कलिये ‘मनसा देवी‘ आदि की कल्पना की गयी और इन सबको उपदेवता कहा गया। महिलायें ‘लक्ष्मी‘ की पूजा साल भर करती रहती हैं ताकि घर में समृद्धि बनी रहे, ‘सेतेरा और सुवाचनी‘ धार्मिक समारोहों में शाॅंति बनाये रखने के लिये पूजी जाती हैं। ‘‘षष्ठी और नील‘‘ (बिहार में) बच्चों की भलाई के लिये, बीमारी के भय से ‘‘श्मशान काली और रक्शेकाली‘‘ (बंगाल में) की पूजा की जाती है। संस्कृत में इन्हें उपदेवता कहा जाता है क्योंकि वे परमपुरुष नहीं हैं जो कि आध्यात्मिक संसार के यथार्थतः उपास्य हैं। इनके अलावा बंगाल और अन्य प्रदेशों में इन्हीं से मिलते जुलते अनेक अन्य उपदेवता हैं जैसे, मंगलचंडी,, सत्यपीर, हरदौल आदि।
उपदेवता यथार्थतः लौकिक देवी देवता हैं जिनमें किसी किसी का तो स्थानीय भाषा में ध्यान मंत्र बनाया गया है परंतु अधिकाॅंश का नहीं है। इस प्रकार के देवी देवता बौद्ध और जैन काल के हैं और उनके पश्चातवर्ती काल में उपदेवता के रूप में मान्यता पाते जा रहे हैं या पा चुके हैं। उन्हें सामाजिक मान्यता मिलती रहे इसके लिये उन सभी को किसी न किसी प्रकार शिव से संबंधित किया गया है क्यों कि शिव के बिना उनका कोई महत्व नहीं होता। इनकी पहचान यही है कि वे लौकिक और स्थानीय भाषा और व्यावहारिक संबंधों से जुड़े होते हैं उनका कोई बीज मंत्र या उद्गम का श्रोत नहीं पाया जाता, केवल परंपरायें ही उनका आधार होती हैं। कुछ लोग भूतों को भी उपदेवता इस भय से कहने लगे हैं कि अन्यथा वे नाराज हो कर प्रताड़ित करने लग जायेंगे। परंतु संस्कृत में शब्द ‘उपदेवता‘ को भूतों के लिये प्रयुक्त नहीं किया जाता वरन् ‘अपदेवता‘ कहा जाता है। ‘उप‘ का अर्थ है निकट और ‘अप‘ का अर्थ है बिलकुल विपरीत। इसलिये अपदेवता का अर्थ हुआ देवता के गुणों के विपरीत व्यवहार करने वाला।
ध्यान रहे, आध्यात्मिक साधक जो ज्ञान, कर्म और भक्ति में विश्वास करते हैं और इन्हीं के द्रढ़ पथ पर चलते हैं वे किसी भी प्रकार के उपदेवता या अपदेवता को मान्यता नहीं देते वे केवल परमपुरुष के ही उपासक होते हैं। ऋषि याज्ञवल्क्य के अनुसार देवता वह है जिसका व्यक्तित्व और जीवनदर्शन एक समान हो गया है। ‘‘ द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तव्यः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् सूर्य जैसे अनेक दिवाकर जिनके भीतर क्रीडा करते और जिनसे प्रकाश पाते हैं , जिनकी अन्य सभी तथाकथित देवता स्तुति करते रहते हैं, उन्हें ही देव कहते हैं।
स्पष्ट है कि एकमात्र परमपुरुष ही उपास्य हैं और मानव मात्र का लक्ष्य भी वही एकमेव अद्वितीय हैं, अन्य देवता, उपदेवता या अपदेवता नहीं।
(मौलिक और अप्रकाशित)
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जैसे हम, वैसे हमारे देव ! जैसी हमारी प्रकृति, वैसा हमारा समर्पण और वैसी हमारी भक्ति !
:-)))
इस विषय पर बाद में आता हूँ, आदरणीय टीआर सुकुल जी.
सादर
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