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ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक 63 में सम्मिलित सभी ग़ज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

परम आत्मीय स्वजन 63वें तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर है| मिसरों को दो रंगों में चिन्हित किया गया है, लाल अर्थात बहर से खारिज मिसरे और हरे अर्थात ऐसे मिसरे जिनमे कोई न कोई ऐब है|

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मिथिलेश वामनकर


नशे में हूँ मैं, मगर फिर भी चेतना ही लगे
गगन गगन ही लगे, ये धरा धरा ही लगे।

मैं कृष्ण, राम, महादेव संग खेला हूँ
मुझे रसूल भी अपने वही सखा ही लगे।

हवा ने आज जो मदमस्त तान छेड़ी है।
नफ़स नफ़स में मुझे गीत गूंजता ही लगे।

ये मीडिया को कोई फर्क आज सिखला दो
कथा कथा ही लगे और व्यथा व्यथा ही लगे।

गुलाम सोच ने अब कैफियत बदल दी है
मैं अपनी बात भी कह दूं तो याचना ही लगे।

मैं आइने से मुखातिब हूँ तन-अकड़ के मगर
मेरा ये अक्स मुझे क्यों झुका झुका ही लगे।

लुगत जबान पे रख के वो बात करते हैं
दुआ-सलाम भी उनका तो फलसफा ही लगे।

उसे तो उज्र हर इक बात पे रही इतनी
वो वाह-वाह भी कह दें तो तज़किरा ही लगे।

जो बंद दिल की, मगर घर की जरुरत समझो
"ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे।"

गुहार न्याय की करता है कब्र का पत्थर
वो इस फ़िराक़ में है कत्ल हादसा ही लगे।

उन्हीं-उन्हीं की तो ‘मिथिलेश बात करते हो
कोई भी पल, वो जो तुमसे कभी जुदा ही लगे।

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शिज्जु "शकूर"


दबा-दबा ही लगे, वो झुका-झुका ही लगे
दिखा के ज़ोर भी अपना डरा-डरा ही लगे

तमाम रात मचलते हुये ही ग़ुज़री, अब
“ये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे”

विरोध स्वर से यहाँ बौखलाये लोगों को
विरोध करता हुआ हर कोई बुरा ही लगे

कदम प्रगति की दिशा से भटक गये शायद
युवा विगत की तरफ फिर से लौटता ही लगे

अभी तो उग्रता अपने चरम पे है, देखो
ये दौर अग्नि-शलाकाओं से घिरा ही लगे

हर एक कोण से देखा खबर के सच को, पर
हर एक दृष्टि से, भ्रम टूटता हुआ ही लगे!

अजीब आग लगी है इसे बुझा न सकूँ
कि जितनी बार बुझाऊँ भड़कता सा ही लगे

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Samar kabeer


जुनून-ए-शौक़ की यारों ये इन्तिहा ही लगे
कोई जफ़ा भी करे तो मुझे वफ़ा ही लगे

निगाह क्यूँ रहे फ़ैज़-ए-जमाल से महरूम
रुख़-ए-हसीन पे पर्दा मुझे बुरा ही लगे

ज़बाँ में घोल दी दुनिया ने इतनी कड़वाहट
अगर मिठाई भी खाऊँ तो बदमज़ा ही लगे

ये ही तो होता रहा है अज़ल से आज तलक
अलम जो सच का उठाए वो बावला ही लगे

वो जिसकी ज़ात में कमज़ोरियाँ हों पोशीदा
सवाल पूछने वाला उसे बुरा ही लगे

नहीं है पास जो मरहम,तो दिल के ज़ख़्मों पर
"ये खिडक़ी खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे

इक ऐसा चश्मा बनाओ जिसे पहन के "समर"
बुरा बुरा ही लगे और भला भला ही लगे

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दिनेश कुमार


बदन का शीशमहल अब तो ग़मकदा ही लगे
तेरे बग़ैर ज़वानी भी इक सज़ा ही लगे

जिसे उमीद-ए-शिफ़ा अपने चारागर से नहीं
दवा लगे न उसे फिर कोई दुआ ही लगे

सराब-ए-इश्क़ ही कह लो या तिश्नगी दिल की
तुम्हारे हुस्न का हर अंग मयकदा ही लगे

फ़िज़ा भी अब के बरस बे-ख़ुमार गुज़रेगी
कि हर गुलाब से ख़ुशबू ज़रा जुदा ही लगे

किसी अजीज ने दिल का यकीन तोड़ा था
हुए हैं बरसों मगर ज़ख़्म वो हरा ही लगे

ये दौर-ए-नौ की सियासत की एक खूबी है
कि हर गरीब को हर हुक़्मरा बुरा ही लगे

ग़मों के दौर ने जिसका क़रार छीना हो
हयात उसको हवादिस का सिलसिला ही लगे

है हक़परस्ती मेरे रोम रोम में शामिल
मेरा वजूद ज़माने को देवता ही लगे

उदास दिल में समायी है तीरगी बेशक
"ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे"

हसीन धोखा है रंगीनी-ए-हयात दिनेश
सँभल के रहना, ये पानी का बुलबुला ही लगे

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मोहन बेगोवाल

कभी तेरा हमें मिलना लगी दुआ ही लगे |
मगर छु कर गई दोस्त सदा हवा ही लगे |

इसी उमीद में दिल को बनाया आशियाना ,
कोई रहे तो सही चाहे बेवफा ही लगे |

चलो बता दिया तूने कि कब था ये मेरा घर,
करीब रह के भी बस चलता सिलसिला ही लगे |

तलाश उस में अभी आये और चल भी दिए,
बनाई उस ने जो दुनिया मुझे खुदा ही लगे |

अजीब बात मुझे बार बार आ सताए,
हमारी हम से नदानियां भी खफा ही लगे |

इसी ख्याल गुजारी थी रात भर ऐ ! सखी,
“ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह कि हवा ही लगे “|

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SHARIF AHMED QADRI "HASRAT"

ज़हर भी हो तो तेरे हाथ से दवा ही लगे
तेरा कसूर भी मुझको तेरी अदा ही लगे


हबीब बनता हे रखता हे बुग्ज़ दिल में मगर
हर एक उसकी दुआ मुझको बद्दुआ ही लगे

मिला हे हंस के वो मुझसे मेरे गले भी लगा
मगर मुझे तो वो अब भी खफा खफा ही लगे

गुज़र गया हे ज़माना बहार देखे हुए
ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे

अजीब हाल हे दिल का न पूँछ मेरे सनम
मेरे करीब हे लेकिन जुदा जुदा ही लगे

यही दुआ हे ये हसरत हे आरज़ू हे मेरी
गुलाब जैसा ये चेहरा खिला खिला ही लगे

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Manoj kumar Ahsaas

तुम्हारे होने का अहसास दूसरा ही लगे
तेरे विसाल की आहट मुझे सजा ही लगे

वफ़ा का चाँद फलक से उतर गया यारो
ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे

तुझे यकीन खुदा का नहीं न मेरा कभी
मेरी दुआ न सही जा तुझे दवा ही लगे

मुराद सोने की थी पीली होक़े सुख गयी
ज़मीनी घाव था हर वक़्त पे हरा ही लगे

नवाज़ सकता है किस रूप मे बता दे ज़रा
सिसकने वाले को हर चीज़ में खुदा ही लगे

ये कहके उसने मेरे हाथ से छिनी है कलम
के तुम तो साथ भी रहकर सदा जुदा ही लगे

तुम्हारी याद का कब तक खुमार उतरेगा
मै भूल जाऊ तुझे फिर भी कुछ नया ही लगे

____________________________________________________________________________

Ganga Dhar Sharma 'Hindustan'

ये मस्त हुश्न तेरा ,कोई जलजला ही लगे.
मुझको तो आशिकों की , अब क़ज़ा ही लगे.

कि बढ़ रहा है दमा और घुट रही साँस भी
ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे

किसने किया था सौदा, अस्मत का देश की
गुलामी कि वजह कौन थे, सच पता ही लगे

बैसाखियाँ किसी को चलना, सिखाती नहीं
है चला रहा जो सबको , वो होंसला ही लगे

'हिन्दुस्तान' को देखे तो कहे दुनिया बरबस
कामयाबियों का ये कोई सिलसिला ही लगे

______________________________________________________________________________

Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"

ज़रा बहार की बीमार को दवा ही लगे।
सदा वो खुश रहे उसको मेरी दुआ ही लगे।।

भले ही बात वो मेरी नहीं सुना करता।
मगर हूँ आज भी सजदे में वो खुदा ही लगे।।

सुनो तो हिचकियों जाकर वहीं पे गरजो ज़रा।
कि उसको मैंने यहाँ याद है किया ही लगे।।

सुनो जी मेघ मेरे यार के शहर में बरस।
यहाँ पे पीर है कितनी उसे पता ही लगे।।

फ़िज़ा के हुश्न का दीदार तो ज़रा मैं करूँ।
ये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे।।

कई दिनों से नहीं रूह का दीदार हुआ।
ज़रा ये पर्द हटाओ तो वो मिला ही लगे।।

गज़ब का नूर वहाँ दूर किसका है दिखता।
वसन ये दूर करो तब तो वो मेरा ही लगे।।

नहीं नहीं ये मेरा रंग ढंग बदलो ज़रा।
ये फर्द गर्द से खाली हो कुछ धुला ही लगे।।

कोई तो झाँक रहा मन के आईने में यहाँ।
ये शख़्स कौन है मुझको तो ये नया ही लगे।।

निगाह सूख गयी पानी मर गया है तेरा।
किया ख़ता है जो पंकज तो अब सज़ा ही लगे।।

_____________________________________________________________________________

rajesh kumari

मेरा मजाक तो तुझको सदा खता ही लगे
यूं रूठना मुझे तेरा मगर सजा ही लगे

सदा ख़याल मेरे मन को टोकता ही रहा
न जाने कब तुझे किस बात का बुरा ही लेगे

सुकून जीस्त का गुम हो गया न जाने कहाँ
तुम इश्तहार निकालो जरा पता ही लगे

सभी की राह के पत्थर सदा हटाती रही
ये सोचकर मैं किसी की कभी दुआ ही लगे

घुटन से टूट रही डोर हसरतों की मेरी
ये खिड़की खोलो जरा सुबह की हवा ही लगे

मुहब्बतों के सभी रास्ते गए हैं बदल
जिधर चलूँ में उधर हर कोई नया ही लगे

तेरी जफ़ा ने मेरा दर्द लाइलाज किया
दुआ लगे न किसी की मुझे दवा ही लगे

जो सोचते उसे किश्ती का नाख़ुदा ही फ़कत
मुसीबतों में वही शख्स तो खुदा ही लगे

अजीब हो गई इस शह्र की तो आबो हवा
न जाने क्यूँ मुझे हर शख्स ग़मज़दा ही लगे

________________________________________________________________________________

Ravi Shukla


तेरे जहान में होने का कुछ पता ही लगे
दुआ नही तो हमे कोई बद्दुआ ही लगे

कभी कभी ये तुम्हारी ज़फ़ा वफ़ा ही लगे
यही अलामत है इश्क खुशनुमा ही लगे

हुई नही मेरी रातो में नींद की आमद
किसी तरह से न ताबीर का पता ही लगे

सुना है लोगो ने दम साज का खिताब दिया
मसीह बन के फिर आओ तो कुछ दवा ही लगे

कभी किया ही नही हमने और से चरचा
किया तलाश उसे खुद जो आप सा ही लगे

मिला उसी में किया सब्र इश्क़ में देखो
गला हो आँख हमारी कि दिल भरा ही लगे

उदास हो के तड़पना कभी लहू रोना
जदीद दौर में ये ज़िक्र अब बुरा ही लगे

तरीका कोई हो बर्दाश्त को सिवा रखना
ये लाज़िमी तो नही ज़ख्म कुछ हरा ही लगे

तबील रात में होते रहे चराग फ़ना
शबे फ़िराक में जलने में हौसला ही लगे

बढ़ा के दीद की शिद्दत को इंतज़ार करो
नए लिहाज़ से देखो तो दूसरा ही लगे

खुलें नहीं दर कैदे हयात के तब तक
ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे

___________________________________________________________________________

jaan' gorakhpuri

निगाह ढूंढ ले सबसे वो अलहदा ही लगे
तेरी अदा तो सनम बस तेरी अदा ही लगे

कि सादगी ने ज्यूँ वरमाल डाल दी हो गले
वो कुदरतन ही, सरापा सजा सजा ही लगे

मुहब्बतें हैं अता दरमियाँ हमारे ऐसी
मैं डूब तुझ में जाऊँ तो भी फ़ासला ही लगे

हो चौदवीं कि अमावश की रात,तुम जो हो पास
तो चाँदनी से मेरा घर खिला खिला ही लगे

शराब कैसी हो मुझसे तू सुन ए बादफ़रोश
उठे तो जाम, झुके तो वो मैकदा ही लगे

ये माना है अभी भी तीरगी फ़िजा में बहुत
"ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे"

_______________________________________________________________________________

Sachin Dev

हमें ये जिन्दगी हरपल जुदा–जुदा ही लगे
सबक देती है जो हमको नया-नया ही लगे

चले जो आज की दुनिया में सच की राह पकड़
वो आदमी तो जमाने को सिरफिरा ही लगे

मिले हैं ऐसे भी बेदर्द इस जहाँ में हमें
किसी का दर्द भी जिनको तो बस मजा ही लगे

है कौन ऐसा जमाने में जिसका मोल नहीं
हरेक शख्स यहाँ हमको तो बिका ही लगे

तुम्हारे इश्क में अपना हुआ ये हाल सनम
जहर भी दोगे हमें तुम अगर दवा ही लगे

न जाने खोज में रहता है आजकल किसकी
ये मेरा दिल जो मुझे खुद में गुमशुदा ही लगे

अभी है देर जरा धूप की तपन जो चुभे
ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे

रही न बात नयी इश्क के फ़साने में अब
किसी का दर्द सुनो कुछ सुना-सुना ही लगे

______________________________________________________________________________

Abhinav Arun


जो बद्दुआ भी उधर जाए तो दुआ ही लगे |
अजब दरख़्त है पतझड़ में भी हरा ही लगे |

ये आगरा है इसी शह्र में है ताजमहल ,
यहाँ की आबो हवा औरों से जुदा ही लगे |

हरेक मोड़ पे इक मोड़ आ रहा है नया ,
ये ज़ीस्त फिर भी निभाती हुई वफ़ा ही लगे |

पढ़ो क़ुरआन या गीता के श्लोक को ही पढ़ो ,
किसी भी चश्मे से देखो ख़ुदा ख़ुदा ही लगे |

तमाम पर्दों के पहरे से कुछ गुरेज़ नहीं ,
ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे |

हरेक शख्स सिमट सा गया है ख़ुद में यहाँ ,
नहीं किसी से रहा कोई वास्ता ही लगे |

जो कल की शाम मिला था मुहब्बतों से बहुत ,
सुबह को ऐसे वो बदला की दूसरा ही लगे |

जो सच बयानी में करता नहीं है कोई लिहाज ,
मेरा वो दोस्त मेरे घर का आइना ही लगे |

सभी को नींद में चलने की है बीमारी लगी ,
हरेक शख्स यहाँ सोया पर जगा ही लगे |

_______________________________________________________________________________

डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव

करो समझ अब ऐसी पवन हवा ही लगे
धरा जमीं लगे आवाज भी सदा ही लगे

कहा जरूर मेरी नफरतों ने कुछ अजगुत
बुरी है बात हमारी उन्हें बुरा ही लगे

सुनी है रात में तेरी उमस भरी धड़कन
ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे

हकीम के बस का है नहीं ये मर्ज मेरा
दवा नहीं तो शआफत तेरी दुआ ही लगे

सुना तमाम रहा साथ आपका उनका
परख इसी पल शायद वो हमनवा ही लगे

________________________________________________________________________________

Dr. (Mrs) Niraj Sharma

न बात मां की बुरी , डांट भी दुआ ही लगे।
कपूत लाल सदा मां को तो भला ही लगे॥

हो मन में आस न जीवन में कुछ ग़लत होगा।
नई नज़र से निहारो , नया नया ही लगे॥

खुदा पुकार नहीं , भावना से मिलता है।
जहां निगाह करो हर जगह खुदा ही लगे।।

गरम समां ये पसीने से तरबतर तन पे
ये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे॥

जवान रात रहे जाम और साक़ी हो।
नशे में घर भी मुझे अपना मैक़दा ही लगे॥

हरेक बात पे नखरे दिखा ठिनक जाना।
ज़रा न शक़ ये हमें हुस्न की अदा ही लगे॥

शगुफ्तगी न दिखे शक्ल और मौसम पे।
हरेक शख्स वहां जीते जी मरा ही लगे॥

जहां अवाम की तहज़ीब गंग- जमुनी हो।
तमाम दुनियवी मुल्कों में वो जुदा ही लगे॥

_____________________________________________________________________________

D.K.Nagaich 'Roshan

'

मिला है जो भी मुझे तेरा आशना ही लगे,
मगर न जाने मेरे दिल को क्यूं बुरा ही लगे.

मेरे तबीब ने ऐसा इलाज़े-ज़ख़्म किया,
गुज़र गया है ज़माना मगर नया ही लगे.

असर है मेरी अक़ीदत का या कोई धोखा,
हरेक संग मुझे आज भी ख़ुदा ही लगे.

वो दुश्मनों में मेरे अब शुमार है लेकिन,
सुकून है कि मरासिम कोई सिवा ही लगे.

तुम्हारे कस्र में घुटने लगा है दम मेरा,
"ये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे".

अभी भी दिल में मुहब्बत बची है उसके क्या,
कि बद्दुआ भी मुझे उसकी इक दुआ ही लगे.

मैं शम्अ दिल की अभी भी किए हुए रोशन,
ये और बात है दिल मेरा ये बुझा ही लगे.

________________________________________________________________________________

गिरिराज भंडारी

तू ज़ह्र दे मुझे जितना , मुझे दवा ही लगे
तेरी हरिक जफा भी क्यूँ मुझे वफा ही लगे

हरेक सच मेरा क्यूँ कर तुम्हें गढ़ा ही लगे
फसाना मेरा जो हो मुख़्तसर , बड़ा ही लगे

अँधेरा ऐसा घिरा है, कि मेरी आँखों को
जलाओ जो भी दिया तुम मुझे बुझा ही लगे

उन आँखों को पढ़ा हूँ मै हरिक दिन इतना कि अब
वो चुप भी गर रहें तो सब कहा सुना ही लगे

लगन ले के मुझे मंज़िल की पहुँची है वहाँ पर
डगर में संग भी अब तो मुझे भला ही लगे

गरीबी सोच को छू ले ज़रूरी तो नहीं, पर
हरेक बात से तू अब मुझे गदा ही लगे

घुटन भरी थी, मेरी रात की सियाही कल
"ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे"

_______________________________________________________________________________

laxman dhami

जुनून प्यार का गर हो भला भला ही लगे
डगर ये ऐसी जहाँ जहर भी सुधा ही लगे

तड़पना और भी लिक्खा नसीब में यारब
हो इंतजार अगर प्यार भी सजा ही लगे

सयाने कहते है सब कुछ नजर का धोखा है
हुआ हो अंध जो सावन में सब हरा ही लगे

न ऐसे खुद में सियासत रचा बसा अब तू
भला सा काम हमारा तुझे बुरा ही लगे

छिनी है धूप भले ही हमारे हिस्से की
ये खिड़की खोलो जरा सुबह की हवा ही लगे

न तो दवा ही लगे है न अब दुआ ही लगे
ये मर्ज कैसा है जिसका न कुछ पता ही लगे

चलो कि छोड़ दें अब तो सफर की बातों को
सफर की सुन के मुसाफिर डरा डरा ही लगे

___________________________________________________________________________

MAHIMA SHREE

बगैर उसके ये जीवन तो बेमजा ही लगे
ये रात चाँद सितारे सब जैसे सजा ही लगे

कई दिनों से मेरे चाँद का पता ही नहीं
करुँ जतन मैं कि कुछ उसका तो पता ही लगे

मेरे खवाब में जो चेहरा दिखा था कभी
वो चेहरा लगा क्यों आज यूँ मिला ही लगे

कहो तो छोड़ दे सब आ जाये दौड़ के हम
उठे कदम को तो थोड़ा सा फासला ही लगे

चलो उठो भी की इतनी उदासी अच्छी नहीं
ये खिड़की खोलो जरा सुबह की हवा ही लगे

______________________________________________________________________________

Neeraj Kumar Neer

सौदा ए इश्क़ में नुकसान भी नफा ही लगे
वो जो करे बेवफाई तो भी वफा ही लगे ।

हुआ बीमार बहुत याद आई माँ मुझको
दवा जहां न करे काम वहाँ दुआ ही लगे ।

बहुत उदास यहाँ है मेरी तरह अंधेरे
ये खिड़की खोलो जरा सुबह की हवा ही लगे।

उसे सुने सब वह जो कहे किसी से मगर
कहे कभी कुछ कोई उसे बुरा ही लगे।

यूं तो मेरे दिल के पास रहता है हरदम
कभी रहूँ उसके पास तो जुदा ही लगे।

________________________________________________________________________________

नादिर ख़ान 

हर इक दुआ मेरी उनको तो बददुआ ही लगे
मदद को हाथ बढ़ाऊँ वो भी खता ही लगे

अजीब दौर से गुज़रा है वो ज़माने में
मेरी वफ़ा में भी उसको शक ओ शुबा ही लगे

घुटन बहुत है ज़रूरत है ताज़गी की बहुत
ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे

नहीं है कोई शिकायत मुझे खुदा से कभी
ये बात और है तेरी कमी सज़ा ही लगे

बहार आ गई हरसू तेरे आने से यहाँ
हरेक फूल चमन का खिला हुआ ही लगे

मै खुद को कैसे बताऊँ के कौन है मेरा
बुरा हो वक्त जब हर कोई भागता ही लगे

___________________________________________________________________________

जयनित कुमार मेहता


बिना तेरे तो मुझे ज़िन्दगी सज़ा ही लगे
हो इक चिराग सदा जो बुझा-बुझा ही लगे
-
मरीज़ इश्क़ का हो जाए कोई शख्स तो फिर
उसे दवा न लगे औ' नहीं दुआ ही लगे
-
समझ सका न मैं, आखिर गुनाह क्या है मेरा
मिले वो जब भी मुझे,मुझसे वो खफ़ा ही लगे
-
न पूछ मुझसे तू आलम ये बेखुदी का मेरी
जो बेवफाई भी उनकी मुझे अदा ही लगे
-
घुटन सी होती है मुझको ये तन्हा ज़िन्दगी से
ये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे

______________________________________________________________________________

मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|

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Replies to This Discussion

आदरणीय राणा सर, आयोजन की सफलता की बधाई तथा संकलन हेतु हार्दिक आभार.

 

संशोधित तरही ग़ज़ल

 

कभी जिसे चाहा मिलना उड़ी हवा ही लगे |

रहा सदा था जो दिल में हमें , जुदा ही लगे  |,
इसी उमीद में दिल हम ने था यूँ खोल रखा

कोई रहे तो सही चाहे बेवफा ही लगे |

चलो बता दिया तूने कि कब था ये मेरा घर, 

करीब रह के भी बस चलता सिलसिला ही लगे |

तलाशने जो हमें निकला हाथ ख़ाली रहा,

बनाई उस ने जो दुनिया मुझे खुदा ही लगे |

अजीब बात ये तेरे न मेरे पास रही ,

ये जिंदगी भी तो हम से सदा खफा ही लगे |

इसी ख्याल गुजारी थी रात भर ऐ ! सखी, 
“ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह कि हवा ही लगे |

 

आदरणीय मोहन बेगोवाल जी मतला के मिसरा ए ऊला अब भी बेबहर हुआ जा रहा है| इसे भी दुरुस्त कर लें तो ग़ज़ल एक साथ प्रतिस्थापित कर दी जाएगी|

आदरणीय संचालक महोदय,
इस मुशायरे में मैंने भी भाग लिया था, परंतु प्रस्तुत संकलन में मेरी रचना नहीं दिख रही है।

आदरणीय आप मुशायरे की पोस्ट की पेज संख्या बता सकें जिस पर कि आपकी ग़ज़ल है तो बहुत आभारी रहूँगा|

 

जी, पृष्ठ संख्या तो याद नहीं, पर आयोजन समाप्त होने पर मुझे अपनी ग़ज़ल सबसे अंत में नज़र आ रही थी.. और उसपर मिथिलेश वामनकर जी की प्रतिक्रिया भी थी।।

जी आपकी ग़ज़ल भी जोड़ दी गई है|

आदरणिय राणा सर
नमस्कार
बधाई

एक निवेदन थी सर

यदि संकलन के प्रारम्भ में बहर आदि पुनः लिख दी जाये तो बहुत अच्छा रहेगा
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"अच्छे दोहे हुए हैं, आदरणीय सरना साहब, बधाई ! किन्तु दोहा-छंद मात्र कलों ( त्रिकल द्विकल आदि का…"
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