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हम ठगे जाते रहे हैं..

हम लुटे हैं
हम ठगे हैं.. और ये होता रहा है पुरातन-काल से..
हम ठगाते ही रहे हैं..
उन हाथों ठगे जिन्हें
प्रकृति-मनुज का क्रमान्तर बताना था
काल-मनवन्तर रचना और बनाना था
वर्ग-व्यवहार निभाना था..
हम ठगे गये उन आत्म-अन्वेषियों/खोजियों के हाथों
छोड़ गये जो पीछे बिलखता समुदाय, पूरा समाज
परन्तु यह वर्त्त न पा सका एक मुसलसल रिवाज़
फिर, हम फिर ठगे गये उनसे
जिन्होंने अपनी रीढ़हीन मूँछों और अपनी अश्लील ज़िद के आगे
पूरे राष्ट्र को रौंदवा दिया.. और धरवा दिया रेहन पर हमारी अस्मिता को
हाँ, हम ठगे गये थे.
हम तब भी ठगे गये
जब इस पुरातन देश के
नये-नये, सुनहरे भविष्य की रूप-रेखाएँ खींची जानी थी
युगों-युगों की कथाएँ भींची जानी थी.
फिर ठगे गये हम उस समय भी
जब इस देश की कुल-परिपाटी की जानी थी तय
जब आँखों में थीं नम-आशायें और शिराओं में बह रहा था
अनुत्तरित भय
हम तब भी ठगे गये थे.
हम ठगाते ही रहे हैं.
उस समय भी जब
तथाकथित दूसरी आज़ादी का उद्भट्ट-उन्माद था
ओह.. हमारा वर्त्तमान बरबाद था..
उनके हाथों लुटे जो उस क्रान्ति के वाहक थे..
और उनके भी जो उस क्रान्ति के जायज-नाजायज साधक थे
हम फिर ठगे गये
जब एक सामंत बहुरूप ले फकीर बना था
इस देश की बलत्कृत तक़दीर बना था
कितनी माओं के बच्चे जल-कट-मर गये
वह तोप मग़र आज भी गरजती है
जिसकी पर्ची पर कई-कई राज़ खुलने थे
पर आजतक तह में रह गये.
हम फिर ठगे गये
जब दमितों के झण्डा-बरदारों ने हमारे कन्धों पर सायास कब्ज़ा कर लिया.
हम ठगे गये हर बार..
हम एक बार फिर
भोली, चिकनी सूरतों पर
माटी की ज़िन्दा मूरतों पर
बलि-बलि जा रहे हैं..
इन सूरतों के कई पालित-पोषुओं ने ठगी को विद्या का दर्ज़ा दे रखा है
हमने न चेतने की कसम सी खा रखी है
हम ठगी-दंश के पुरातन अपाहिज हैं
रे बाबा, रे बाबा..!
हमें न बताना
उठाना न जगाना
हम निश्चिंत हैं
दिवा-स्वप्नों में खोये-से
लापरवाह सोये-से.....

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 6, 2011 at 7:13pm

ठगाना हमारी नियति बन गई है,

और ठगना उनकी निति,

न हम अपनी नियति बदल रहे है,

और ना वो अपनी निति,

सौरभ भईया, जो छोभ, जो उबाल, जो एक हुक आपके मन में हिलोर मार रहा है उसको हम लोग भी बड़ी सिद्दत से महसूस कर पा रहे है, आपकी रचना सब कुछ कह सकने में समर्थ है, मैं शमशाद भाई की बातों से बिलकुल इतफाक रखता हूँ , शिल्प निभाने के चक्कर मे कथ्य ही न रहे ऐसी रचना किस काम की, रचना वाही जो आम जन को समझ में आये |

शानदार अभिव्यक्ति हेतु सौरभ भईया को बहुत बहुत बधाई |

Comment by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on June 6, 2011 at 6:37pm

सौरभ जी..मैं काव्य, छंद संरचना और शिल्प से अधिक कथ्य को मोल देता हूँ, किसी कविता में ये तमाम चीजें हो, गुनी रात दिन चर्चा करें और कथ्य न हो, मेरे लिये दो कौडी की है और समाज के लिये एक अड़चन, लिहाजा आपकी कविता का कथ्य प्रासंगिक है और यथार्थ का चमकीला शीशा दिखाता है कि आँखें चुधियाँ जायें...अभी तक संपादक महोदय नज़र नहीं आये?? सादर

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 6, 2011 at 6:31pm

..चिरकाल से सोयी हुई किसी कौम को जगाने की उत्कंठा, जिसके भीतर ग्लानि भी है और ज़ख्मों के खुरडों को खुरचने की चाह भी...एक चाह भी, कि बस एक बार और न ठगे जायें और कश्ती किनारे पहुँच जाये...

 

शमशाद भाई, जो है, जैसा है, वही आपने देखा, सो आभारी हूँ..

मैं इस रचना के प्रारम्भ में लिखने जा रहा था कि इस रचना में तथाकथित शिल्प या भंगिमा-शैली नहीं, सीधा-सीधा कथ्य देखिये.. क्षोभ महसूसिये. आप पेज तक आये इस हेतु पुनः-पुनः आभार.

Comment by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on June 6, 2011 at 6:25pm

ये कविता नहीं बल्कि किसी देश-राष्ट्र का काव्य पोस्टमार्टम है, चिरकाल से सोयी हुई किसी कौम को जगाने की उत्कंठा, जिसके भीतर ग्लानि भी है और ज़ख्मों के खुरडों को खुरचने की चाह भी...एक चाह भी, कि बस एक बार और न ठगे जायें और कश्ती किनारे पहुँच जाये....बहुत सार्थक कविता है, सौरभ जी, बधाई स्वीकार करें.सादर

Comment by Rash Bihari Ravi on June 6, 2011 at 4:56pm

रे बाबा, रे बाबा..!
हमें न बताना
उठाना न जगाना
हम निश्चिंत हैं
दिवा-स्वप्नों में खोये-से
लापरवाह सोये-से...

vah kya bat hain , saty 

Comment by Dr. Sanjay dani on June 6, 2011 at 9:22am
यथार्थ की सार्थक अभिव्यक्ति।

कृपया ध्यान दे...

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