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ग़ज़ल -इक अधूरी नज़्म मेरी ज़िन्दगी थी - ( गिरिराज )

2122   2122    2122 

हर हथेली, क़ातिलों की जान ए जाँ  है

ज़ह्र उस पे, मुंसिफों सा हर बयाँ है     

 

बाइस ए हाल  ए तबाही हैं, उन्हें भी    --

बाइस ए तामीर होने का गुमाँ है  

 

एक अंधा एक लंगड़ा हैं सफर में

प्रश्न ये है, कौन किसपे मेह्रबाँ है

 

किस तरह कोई मुख़ालिफ़ तब रहेगा

जब कि हर इक, दूसरे का राज दाँ है

 

जिन चराग़ों ने पिया ख़ुर्शीद सारा  

उन चराग़ों में भला अब क्यूँ धुआँ है

 

जब वफादारी की क़समें खा चुके सब

क्या करिश्मा है कि लुटता कारवाँ है

 

ढोल माजी का उठाये पीट मत यूँ  

क्या तेरा भी हाल, मुर्दा- बेज़बाँ है

 

जो दहकता कोयला देते थे खाने

आज शिकवा है, वो क्यूँ आतिशफिशाँ है

 

वो अलग है, ग़ैर मुल्क़ी परचमों पर  

क्या तुम्हें दिखता नहीं वो गुलफ़िशाँ है   

 

मैं पहुँच जाऊँगा मंज़िल तक यक़ीनन

गर कोई कह दे मुझे जाना कहाँ है

 

इक अधूरी नज़्म मेरी ज़िन्दगी थी

और उनकी भी अधूरी दासताँ है

*********************************

मुंसिफों -- न्यायाधीश , बाइस - कारण , तामीर = निर्माण ,  ख़ुर्शीद -- सूरज , आतिशफिशाँ - ज्वाला मुखी , गुलफिशाँ - फूल चढाने वाला

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by Mohammed Arif on February 19, 2017 at 4:40pm
वाह!वाह!वाह!क्या ख़ूब ग़ज़ल कही है आदरणीय गिरिराज भंडारी जी । बधाई!बधाई!!
Comment by नाथ सोनांचली on February 19, 2017 at 2:58pm
आद0 भाई गिरिराज भंडारी जी सादर अभिवादन। बहुत ही उम्दा गजल, बेहतरीन। शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ, । इस शेर के लिए विशेष
नमन
मैं पहुँच जाऊँगा मंज़िल तक यक़ीनन
गर कोई कह दे मुझे जाना कहाँ है

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