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"हे परवरदिगार! ये तूने मुझे आज कैसे इम्तिहां में डाल दिया ?" उसने पीछे लेटे लगभग बेहोश, युवक को एक नजर देखते हुए हाथ इबादत के लिए उठा दिए।
...... रात का दूसरा पहर ही हुआ था जब वह सोने की कोशिश में था कि 'कोठरी' के बाहर किसी के गिरने की आवाज सुनकर उसने बाहर देखा, घुप्प अँधेरे में दीवार के सहारे बेसुध पड़ा था वह अजनबी। देखने में उसकी हालत निस्संदेह ऐसी थी कि यदि उसे कुछ क्षणों में कोई सहायता नहीं मिलती तो उसका बचना मुश्किल था। युवक की हालत देख वह उसके कपडे ढीले कर उसे कुछ आराम की स्थिति में लिटा कर पानी पिलाने की कोशिश कर ही रहा था कि 'संस्कारी धागे' को देख उसके हाथ काँप गए। वक़्त की नजाकत देखते हुए उसने वही किया जो जरूरी था, लेकिन पिछले दिनों हुए दंगो के बाद के माहौल के बारें में सोच अब वह हलकान हुआ जा रहा था।...
"हे मेरे मौला, इस बच्चे की जान बख्श दे। कही इसे पिलाया आब-ए-हयात नफरत का जहर बनकर इंसान की नसों में न फ़ैल जाए। मुझे अपनी फ़िक्र नहीं, पर डरता हूँ कि लोगों का इंसानियत से यकीं न उठ जाए।"
"बाबा!" सहसा पीछे लेटे युवक ने करवट बदली। "आप जैसे फरिश्तों के होते हुए इंसानियत से किसी का यकीन कैसे उठ सकता है।"
"बेटा, फरिश्ता तो ऊपर वाला है जिसके आब-ए-हयात ने तुम्हे नयी जिंदगी बख्शी है।" युवक की ओर पलट, अपनी बात कहते हुए उसने ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया।
"जल तो जीवन का आधार है बाबा, जो युगों युगों से 'अमृत' बनकर धरा पर विधमान है।" युवक के चेहरे पर नवजीवन की आभा झलकने लगी थी। "और इसका साक्षात् प्रमाण मैं हूँ बाबा, जिसे आज इस अमृत से न केवल जीवनदान दिया है वरन् मेरे अंदर के उस विष को भी खत्म कर दिया है जो नफरत बनकर मेरी शिराओं में बहता था।"
"नहीं बेटा! ये पानी तो सिर्फ पानी होता है जिसका अपना कुछ नहीं होता, ये तो बस उसी के रंग में रंग जाता है जिस के साथ मिल जाए।" उसका लहजा गंभीर हो गया था। "असल जहर तो हमारे अंदर ही होता है जिसे जरूरत है बस ढूंढ कर बाहर निकालने की, और बेटा आज तुमने ये बखूबी कर भी लिया है।" अपनी बात पूरी करते हुए उसने कोठरी का दरवाजा खोल दिया, उगते सूरज का उजाला अंदर तक फ़ैलने लगा था।

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विरेंदर 'वीर' मेहता
(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment by rajesh kumari on January 17, 2017 at 10:23pm

इंसानियत का पाठ पढ़ाती प्रेरणास्पद लघु कथा कही है आपने पंच लाइन बहुत उम्दा हुई बहुत बहुत बधाई आपको आद० वीर मेहता जी 

Comment by manju sharma on January 16, 2017 at 1:19am

इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं। स्वच्छ जल चाहे नदियों में बहता हो या किसी भी आस्था के केंद्र में हो जीवनदायी है। जल और इंसानियत की महत्ता को उच्च स्थान दे कर धर्मान्धता के विरोध को लघुकथा के माध्यम से जताते हुयी सुन्दर कथा।

Comment by Neelam Upadhyaya on January 13, 2017 at 12:03pm

"जिसने कभी कुछ उगते-पनपते नहीं देखा, वह तो सब कुछ डस्टबिन में डालने को तैयार होगा ही| कभी ध्यान दिया? कैसे बीज उगता है? पौध तैयार होने पर उसे रोपा जाता है, उसके बाद पत्ते आते हैं, फूल खिलते हैं, फल तैयार होते है| कितना लंबा इंतज़ार है! कितना परिश्रम है प्रकृति का ।"

शहरी जीवन की भागमभाग में प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता को याद दिलाती बहुत ही बढ़िया कहानी । बधाई स्वीकार करें ।  

Comment by Mohammed Arif on January 5, 2017 at 10:59pm
आरणीय वीरेंद्र जी, मानवीयता की हिमाकत करती लघुकथा के लिए बधाई !
Comment by Nita Kasar on December 28, 2016 at 8:25pm
मानवता की रक्षा ही हमारा धर्म होना चाहिये ।जल की महत्ता हमें तभी पता चलती जब ये जीवन बन जाता है ।संदेशप्रद कथा के लिये बधाई आद० वीरेंद्र वीर मेहता जी ।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on December 24, 2016 at 5:23pm
भाई विनय कुमार जी रचना पर आपका आगमन और हौसलाअफजाई, दोनों के लिए दिल से आभार, रचना को रचनाकारअपनी सोच से रचता है और पाठको के सामने रखता है लेकिन पाठको को विचारधारा भी बहुत मायने रखती है, विशेषकर गुनिजन साथियो और गुरुजनों की प्रतिक्रियाएं हमें काफी कुछ सीखने में मददगार होती है .....सादर
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on December 24, 2016 at 5:19pm
आदरनीय प्रतिभा पाण्डेय जी रचना आप को अच्छी लगी, शुक्रिया, आभार. आपका सुझाव, भाषा कुछ सहज हो सकती थी, विचारनीय है, सादर.
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on December 24, 2016 at 5:17pm
भाई आशीष यादव जी सही कहा आपने वास्तव् में हम स्वयं ही दोषी है इस समाज में धर्मान्धता फैलाने के लिए.... रचना पर आपने आकर हिम्मत बधाई, दिल से शुक्रिया भाई जी.
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on December 24, 2016 at 5:14pm
आदरनीय लक्ष्मण रामनुज भाई जी रचना पर प्रोत्साहन को बल देती आपकी सुंदर टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार स्वीकार करे. सादर
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on December 24, 2016 at 5:12pm
आदरनीय मनोज कुमार जी रचना पर प्रोत्साहन देती टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार. सादर

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