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यूँ ज़िन्दगी में खुशियों सी वो बात नहीं है,
बिछुड़ा है जरा साथ मगर मात नहीं है |
मैं शिकवों भरी शामो सहर देख रहा हूँ,
ये घाव उठा दिल पे है सौगात नहीं है |
चलने लगी है आखों में रुक-रुक के ये नदिया,
ये गम का दिया रंग है बरसात नहीं है |
क्यूँ काल से उम्मीद रखूँ कोई रहम की,
है कर्मों की ये बात कोई घात नहीं है |
कुछ लोग लुटाते हैं शबो रोज़ नसीहत,
मैं कर सकूं ये बात भी औकात नहीं है |
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आ० समर कबीर जी इंगित मिसरों में ही गलती को जरा सुधार कर एक अदना सी कोशिश फिर से की है ......जरा नज़रें इनायत कीजिये सर !!
"यूँ ज़िन्दगी में खुशियों सी वो बात नहीं है,
बिछुड़ा है जरा साथ मगर मात नहीं है |
मैं शिकवों भरी शामो सहर देख रहा हूँ,
ये घाव उठा दिल पे है सौगात नहीं हैं |"
आदरनीय हर्ष भाई , बहुत अक्छी गज़ल हुई है . दिली बधाइयाँ स्वीकार करें । बाक़ी बातें आ. समर भाई कह ही चुके हैं , खयाल कीजियेगा। आखों को आँखों कर लीजियेगा ।
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