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गजल
2122 212 2122 2122
था फलक निज का कभी हो गया अब हाशिया हूँ
रोशनी तब थी मिली खो गयी बस मैं जिया हूँ।1
ढूँढता तब से रहा मैं अरे मिल भी सकी कब?
वह पहेली हो रही अब इधर मैं मुँह सिया हूँ।2
आ गये कितने खिलाड़ी खला मैं उन भलों को
खाल घर की बेचते बोलते खुद काफ़िया हूँ।3
तब लड़ी मैंने लड़ाई थके बिन जय कही भी
दुश्मनों पर छक चढ़ा फिर छका कर जय किया हूँ।4
जल सपन अपने गये बस रही है आरजू यह
हर कली खिल सज चले अब नये मग क्या लिया हूँ?5
लूटते हो लाज तुम रे भली उस लाड़ली की
लाज आती है कहाँ कह रही वह मैं धिया हूँ।6
मारते हो रात दिन कह अबल उस दामिनी को
चौंध कर रौशन कहा मत मसल अब मैं जिया हूँ।7
स्वेद-शोणित मैं पिला रे धरा को मुक्त करता
रंग धानी भी खड़ा दे रहा हूँ मैं हिया हूँ।8
लूटता धन भी मुआ कह जरा मैंने लिया कुछ?
सिर नवा अब तो भला सिर कटाते मैं जिया हूँ।9
मौलिक व अप्रकाशित@

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Comment by Manan Kumar singh on December 28, 2015 at 6:52pm
मोहतरम कबीर जी,किंचित परिमार्जन कर रहा हूँ;शायद अनुकूल हो,आदाब।
Comment by Samar kabeer on December 28, 2015 at 5:35pm
जनाब मनन कुमार जी आदाब,इस प्रस्तुति के लिये बधाई,बहुत उलझी हुई रचना है !

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