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क्या नहीं ये अजीब हसरत है ?
ग़म किसी का किसी की राहत है
ख़ाक में हम मिलाना चाहें जिसे
उनको ही सारी बादशाहत है
रोटी कपड़ा मकान में फँसकर
बुजदिली, हो चुकी शराफत है
हर्फ करते हैं प्यार की बातें
आँखें कहतीं हैं, तुमसे नफरत है
मुज़रिमों को मिले कई इनआम
आज मजलूम की ये क़िस्मत है
बेरहम क़ातिलों को मौत मिली
सेक्युलर कह रहे , शहादत है
हाँ, ख़ुदा भी कहीं पे है लेकिन
देश हित ही सही इबादत है
आइना हो के भी तू है पत्थर
अब अयाँ तो तेरी भी सूरत है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
मोहतरम गिरिराज साहिब , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। ...... शेर नंबर 2 और 5 का पहला मिसरा देख लीजियेगा। .... शेर नंबर 4 का दूसरा मिसरा। ..... आँखें कहतीं हैं। ... को आँख कहती है। .. करके ज़रूर देखें। ..... एक बार फिर मुबारकबाद
आदरणीय श्याम नारायण भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरनीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया । आपकी सलाह के लिये आभार , सुधार कर लियाँ हूँ ।
आदरणीय मिथिलेश भाई , सराहना के लिये आपका आभार । आपने सही कहा , मिसरा बेबहर है , सुधार रहा हूँ , फिर से देख लीजियेगा ।
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..आपकी जो ग़ज़लें मुझे सबसे जज्यादा पसंद आयीं हैं उनमे से एक है ये ग़ज़ल ..हर शेर क नयापन लिए हुए ..अंदाज थोडा हट के लगा ..इस ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई स्वीकार करें सादर
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें । |
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