2122—1122—1122—22
मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की
मेरी गंगा भी हमेशा से रही सागर की
रूठने के लिए आतुर है दिवारें घर की
सिलवटें देखिये कितनी है ख़फा बिस्तर की
एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने
बात करता है जमाने से वही नेचर की
अम्न के वासिते मंदिर तो गया श्रद्धा से
बात होंठों पे मगर सिर्फ़ वही बाबर की
आसमां का भी कहीं अंत भला होता है
ज़िंदगी कितनी है मत पूछ मुझे शायर की
ये सहर क्या है, सबा क्या है, हमें क्या मालूम
जिंदगी आज तो पीती है हवा कूलर की
हो जमाने का कोई एक मसाइल तो कहूँ
है मुसीबत तो मेरे सर पे जमाने भर की
भूल जाता हूँ जमाने के सभी ग़म यारो
एक आवाज़ जो कानों में पड़े दुख्तर की
दानवी विश्व जो देखा तो गगन बोल उठा-
फिर जरुरत है धरा को नए पाराशर की
रास्ते ये तो बता, अब तू किधर जाएगा?
ठोकरें हैं मेरे हिस्से में इधर दर-दर की
मेरे हिस्से का उजाला तो बराबर भेजो
चाँद हो, तुम तो कमाई न करो ऊपर की
मरते देखें हैं मरासिम भी, मरासिम के लिए
देख शशि तो न हुई आज तलक शेखर की
ये चकाचौंध जमाने की लगी बे-मतलब
इस दफ़ा देख के आया हूँ जिया भीतर की
अपने माज़ी के लिए आज पे रोने वालो
लौटते देखी है जलधार कभी निर्झर की
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment
आदरणीय मोहन बेगोवाल सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर
आदरणीय मिथिलेश जी, बहुत ही सुंदर मतले साथ कही ग़ज़ल की बधाई कबूल करें
आदरणीय मनन जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर
आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल पर आपकी दाद पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. ग़ज़ल पर शेर दर शेर समीक्षा पाकर दिल खुश हो गया.
हुस्ने-मतला में दिवारें का प्रयोग तथा रास्ते वाले शेर में रास्ते का संबोधन प्रयोग कई बार ग़ज़लों में देखा है इसलिए किया है. ज़िया का त्रुटी सुधार करता हूँ इसके अलावा //आसमां का भी कही अंत भला होता है // इस मिसरे में भी टंकण त्रुटी हुई है उसे कहीं करता हूँ.
ग़ज़ल की सराहना, मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर नमन
आदरणीय जयनित जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर
आदरणीय अरुण निगम सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. नमन
आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , आपको दिली बधाइयाँ -- मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की |
मेरी गंगा भी हमेशा से रही सागर की --- खूबसूरत मतला हुआ है , बधाई |
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रूठने के लिए आतुर है दिवारें घर की --- दीवारें को दिवारें कहना कितना सही होगा नही कह सकता , अगर हुस्ने मतला न कहें |
सिलवटें देखिये कितनी है ख़फा बिस्तर की तो बात मन सकती है शायद । |
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आसमां का भी कही अंत भला होता है |
ज़िंदगी कितनी है मत पूछ मुझे शायर की ----- लाजवाब शेर -- हासिले गज़ल मेरे हिसाब से |
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हो जमाने का कोई एक मसाइल तो कहूँ |
है मुसीबत तो मेरे सर पे जमाने भर की --- सभी के दिल की बात कही |
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भूल जाता हूँ जमाने के सभी ग़म यारो |
एक आवाज़ जो कानों में पड़े दुख्तर की --- क्या बात है , |
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रास्ते ये तो बता, अब तू किधर जाएगा? --- रास्ता ये तो बता , कहना सही होगा , वैसे सम्बोधन मे ऐसा पढ़ा ज़रूर हूँ , रास्ते ! |
ठोकरें मेरे तो हिस्से में इधर दर-दर की ------ ठोकरें मेरे है हिस्से में इधर दर-दर की -- सोच लीजियेगा |
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ये चकाचौंध जमाने की लगी बे-मतलब |
इस दफ़ा देख के आया हूँ जियां भीतर की -- बहुत बढिया शे र है , बधाई , लेकिन जियां को जिया कर लीजियेगा , जियाँ = हानि , क्षति , नुक्सान होता है बेहतरीन गज़ल के लिये फिर से बधाइयाँ । |
आदरणीय मिथिलेश जी ख़ूबसूरत गजल हुई.
आसमां का भी कही अंत भला होता है |
ज़िंदगी कितनी है मत पूछ मुझे शायर की जियो भाई,, क्या ही गजब की बात कही है....................... |
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