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शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत
बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत
किसने कहा कि बज़्म में रहना है आपको
जायें ! रहें जहाँ पे तलबगार हैं बहुत
अपनी भी महफिलों की कमी मानता हूँ मैं
है फर्ज़ में कमी, दिये अधिकार हैं बहुत
समझें नहीं, कि अस्लहे सारे ख़तम हुये
अस्लाह ख़ाने में मेरे हथियार हैं बहुत
नफरत जता के हमसे, जो दुश्मन से जा मिले
वे भी मुहब्बतों के क्यूँ हक़दार हैं बहुत
धो लीजिये हुज़ूर हथेली कहीं से आप
ज़ह्नों के साथ, हाथ गुनहगार हैं बहुत
निकलेगा सूर्य तो ये भरम टूट जायेगा
गो रोशनी के सामने दीवार हैं बहुत
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीया कल्प्ना जी , हौसला अफज़ाई का दिली शुक्रिया ।
आदरणीय रवि भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ , इस गज़ल के होने मे आपसे मिली सलाहों के लिये आपका अलग से आभार ।
आदरनीय मनोज भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय सुशील सरना भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।
बढ़िया है अनुज , आख़री शेर तो लाजवाब है , आपको बधाई .
पढ़कर के गजल आपकी हम ही नहीं वरन्,
सारा जमाना ही करजदार है बहुत।
परम आदरणीय गिरिराज सर बेहतरीन गजल।।
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय गीरिराज़ जी हार्दिक बधाई स्वीकारें |
मतले की गहराई मोह ली |
सादर नमन !
निकलेगा सूर्य तो ये भरम टूट जायेगा
गो रोशनी के सामने दीवार हैं बहुत
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बेहद उम्दा आदरणीय गिरिराज जी, वधाई स्वीकारें!
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