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बहुत बरसों के बाद वह स्वयं को को बहुत ही हल्का हल्का महसूस कर रहा थाl न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता थी, न जिम जाने की हड़बड़ी और न ही अभ्यास सत्र में जाने की फ़िक्रl लगभग ढाई दशक तक अपने खेल के बेताज बादशाह रहे रॉबिन ने जब खेल से संन्यास की घोषणा की थी तो पूरे मीडिया ने उसकी प्रशंसा में क़सीदे पढ़े थेl समूचे खेल जगत से शुभकामनाओं के संदेश आए थेl कोई उस पर किताब लिखने की बात कर रहा था तो कोई वृत्तचित्र बनाने कीl उसकी उपलब्धियों पर गोष्ठियाँ की जा रही थींl किन्तु वह इन सबसे दूर एक शांत पहाड़ी इलाक़े में अपनी पत्नी के साथ छुट्टियाँ मनाने आया हुआ थाl इस शांत वातावरण में वह भी पक्षियों की भाँति चहचहा रहा थाl हर समय खेल, टीम, जीत के दबाव और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला रॉबिन प्राकृतिक नज़ारों में खो सा गया थाl

“देखो नंदा, ये पहाड़ और झरने कितने सुंदर लग रहे हैंl” 
“अरे! आप कब से प्रकृति प्रेमी हो गए?” 
“शुरू से ही हूँ जानूँl” 
“मगर कभी बताया तो नहीं अपने इस बारे मेंl” 
“ज़िंदगी की आपाधापी नें कभी समय ही नहीं दियाl” 
जवाब में नंदा केवल मुस्कुरा भर दी, फिर रॉबिन के चेहरे पर गंभीरता पसरती देख उसने उसने कहा,
“क्या सोच रहे हो?” 
“सोच रहा हूँ, क्यों न हम भी महानगर छोड़ कर यहीं आकर बस जाएँ?” नंदा का हाथ मज़बूती से थामते हुए कहाl
“मगर हम करेंगे क्या यहाँ?” नंदा के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए थेl
“थोड़ी सी ज़मीन ख़रीदेंगे और उस पर फूलों की खेती करेंगेl” 
“और आपको जो चीफ सेलेक्टर की जॉब ऑफर हुई है, उसका क्या होगा?” 
“मैं उनको साफ़ मना कर दूँगाl” 
“ऐसा सुनहरी मौक़ा हाथ से जाने देंगे? मगर क्यों?” 
नंदा का चेहरा अपने दोनो हाथों में भरते हुए रॉबिन ने जवाब दिया,
“आज पहली बार गौर किया नंदा क़ि तुम कितनी ख़ूबसूरत होl”

.

 (मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by TEJ VEER SINGH on October 28, 2015 at 5:30pm

हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज जी,एक खूबसूरत  लघुकथा के माध्यम से आपने एक उत्तम संदेश दिया है कि मनुष्य को जीवन भर महत्वाकांक्षाओं और धन के पीछे नहीं भागते रहना चाहिये!जीवन के कुछ पल अपने प्रियजनों और परिवार के लिये भी संजो कर रखने चाहिये!इस लघुकथा को पढ कर मन प्रफ़ुल्लित हो गया!पुनः बधाई!

Comment by kanta roy on October 28, 2015 at 4:47pm

वाह ! बहुत खूब ! कई दिनों बाद एक सार्थक लघुकथा पड़ने का अवसर हमें आज मिला।
जिंदगी को कसकर पकड़ने में हम जिंदगी से ही कब दूर हो जाते है इसका एहसास ही नहीं होता है।

आगे दौड़ने की जद्दोजहद हमारे सभी सुखों के पल से हमें दूर कर देती है। संन्यास मन को ठहराव देता है और सहसा अपने चारो तरफ सकूँ ही सकूँ का एहसास भी। लक्ष्य की और दौर हमें अपने आप से कितना काट देती है ये आपकी इस कथा को पढ़ने के बाद आत्मचिंतन को विवस हुई।

ये कथा है आपने आपको जानने की ,कि आपको सच में क्या चाहिए होता है , कौन सा सुख सच्चा सुख है , इस पर हम जरूर विचार करें।

एक सन्देश की हम अपनी कसी हुई मुठ्ठी को जरा खोलकर देखे कितनी सहज ये जिंदगी लगती है।

//"आज पहली बार गौर किया नंदा की तुम कितनी खूबसूरत हो."//-----बेहद शानदार और सकारात्मक पंच को लिए हुए ये कथा अनुपम हुई है।

शत -शत नमन सर जी आपको इस सार्थक कृति के लिए।

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