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वे दिन भी भले थे...

फूल से दिन खिले थे
साँझ गुलशन सी रही
खुशियों का चलन था
अब विरानी भली

वे दिन भी भले थे
ये साँझ भी है भली

  .......
छूटना था छूट गये
रंग कच्चे प्रेम के
चाशनी ना थी घनी
हम तो पगे , तुम ना पगे

वे दिन भी भले थे
ये साँझ भी है भली

 ......
हिल रहे थे मिल रहे थे 

सुख सपने सब खिल रहे थे

दुध जल से मिल रहे थे
घुलकर एक ही बने

वे दिन भी भले थे
ये साँझ भी है भली

.....
जुग जैसे दिन अब बीते
पाते खोते मन भी रीते
सगों ने किया  किनारा
अलग बहे नदी जल धारा

वे दिन भी भले थे
ये साँझ भी है भली

 .......
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on October 22, 2015 at 3:41pm

वाह आदरणीया कांता रॉय जी सुंदर भावपूर्ण रचना बन पड़ी है। हाँ ,लेकिन क्षमा सहित प्रथम 'विरानी' अक्षरी त्रुटि है , (वीरानी),द्वितीय - वे दिन भी भले थे के साथ ये दिन भी भली  .... 'दिन 'पुल्लिंग होने के कारण या तो भली को भला करना सही होगा दिन के स्थान पर साँझ /संध्या करना उचित होगा। शेष रचनाकार  प्रस्तुति को अधिक उचित जानता है। कृपया किसी बात को अन्यथा न लेवें।  प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई। 

Comment by DIGVIJAY on October 22, 2015 at 1:31pm

रचना बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण हैं परन्तु अगर..., हिल रहे थे मिल रहे थे.....सुख सपने पल रहे थे....कि जगह (हिल रहे थे मिल रहे थे.....,सुख सपने सब खिल रहे थे) होता तो शायद और बेहतर रंग आता..।।

सादर।

Comment by kanta roy on October 22, 2015 at 11:49am
वाह ! कितना सुंदर मार्गदर्शन हुआ है आपका इस रचना पर । मै जरूर यहाँ " साँझ " को रोपित करना चाहूँगी । आभार आपका हृदयतल से आदरणीया प्रतिभा जी । सादर
Comment by pratibha pande on October 22, 2015 at 11:31am

आदरणीय कांता जी बहुत भाव पूर्ण रचना है ,  अगर आप इसे ऐसे कर दें  'वे दिन भी भले थे ,ये सांझ भी भली '  सांझ शब्द भली के साथ सही है  सादर  

कृपया ध्यान दे...

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