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सत्य अपने पूर्ण या नग्न रूप में हो तो वह ब्रह्म है. जिसके आगे या परे कुछ नहीं. उस ब्रह्म पर शक्ति की माया इसे निरंतरता देती है जो इस जगती और प्रकृति का प्राकट्य है. यही प्रकट्य भ्रम का मूल है जो जीवन की निरंतरता के लिये अनिवार्य है. वर्ना ब्रह्म या पूर्ण के आगे कुछ भी नहीं. ..जीवन ही नहीं.
आपकी रचना इसी निरंतरता के एक विन्दु को रेखांकित करती हुयी प्रतीत होती है. धन्यवाद.
और गलतफहमियों के लिए भी,
थोड़ी पहचान ज़रूरी है......
वाह वाह वाह, दमदार बात कही है आपने, खुबसूरत अभिव्यक्ति पर धन्यवाद आपको |
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