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आदरणीय पंकज जी, बढ़िया बदलाव किया है बस ग़ज़ल के आखिरी मिसरे में कल वाली ही रदीफ़ है उसे भी सही कर लीजियेगा. बह्र का चयन भी बेहतरीन हुआ है. कल की बह्र से बिलकुल अलग और सटीक. जिन मिसरों में बदलाव किया है वो भी अच्छा है. मेरी इस्लाह जिस बह्र पर थी उसे कुछ मिसरों के साथ लिख रहा हूँ ताकि इस बदलाव से मेरी टिप्पणी निरर्थक न लगे.
1212 212 22 1212 212
सजल नयन से नदी उतरी तभी हुई है ग़ज़ल।
जो पीर वाली फसल निखरी तभी हुई है ग़ज़ल।।
न पूछो मिलती किधर हमको जी प्रेरणा ये कहाँ ।
हंसी प्रियम के अधर बिखरी तभी हुई है ग़ज़ल।।
इस बेहतरीन प्रयास के लिए बहुत बहुत बधाई. मेरी इस्लाह पर आप चर्चा करेंगे अथवा प्रत्युत्तर देंगे इतनी आशा तो होती ही हैं न?
मेरी इस्लाह को कृपया अन्यथा न लीजियेगा. यहाँ सीखने-सिखाने की परंपरा के अनुक्रम में हम सभी समवेत सीख रहें है.
हार्दिक शुभकामनायें
आदरनीय पंकज भाई , गज़ल की बाबत आ. मिथिलेश भाई ने बहुत कुछ कह दिया है , ख़याल की जियेगा । गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
आ० मिथिलेश जी के कथन के बाद कुछ कहना बेमानी होगी .
अब देखियें
तकाबुले रदीफेन दोष आ रहा था मेरे इस्लाही मिसरे में इसलिए इसे यूं कहें
न पूछो हमको किधर से मिलती नवल धवल सी ये प्रेरणायें
हंसी प्रियम के अधर में बिखरी तभी हुई है ग़ज़ल हमारी
आदरणीय पंकज जी लगता है ये कोई नई बह्र है चूंकि इस बह्र से वाकिफ़ नहीं हूँ इसलिए प्रस्तुति का लुत्फ़ नहीं ले पा रहा हूँ. यद्यपि ये मिसरे 121-22x4 बह्र के एकाध अरकान को कम कर बनाई हुई लग रही है अगर इसे यूं इस मकबूल बह्र में लिखा जाए तो कैसा रहेगा-
121-22---121-22---121-22---121-22
सजल नयन से नदी- सी उतरी तभी हुई है ग़ज़ल हमारी
जो पीर वाली फसल में निखरी तभी हुई है ग़ज़ल हमारी
न पूछो हमको किधर से मिलती ये प्रेरणायें नवल धवल सी
हंसी प्रियम के अधर में बिखरी तभी हुई है ग़ज़ल हमारी
कभी कहीं जो सुवासितों सी हवाएं बहती दिशा दिशा में
सुमन सजे तो लटें जो संवरी तभी हुई है ग़ज़ल हमारी
कोई पथिक जो चला है जीवन की इस कठिन सी डगर पे यारों
उसी के सिर से उतारी गठरी तभी हुई है ग़ज़ल हमारी
जहाँ तनिक भी रहे न अंतर मनुज को केवल मनुज ही माने ।
जो राम जी से मिली है शबरी तभी हुई है ग़ज़ल हमारी
अगर बह्र पसंद आये तो सभी मिसरे इसी बह्र में आप बदल सकते है, और अगर आपकी बह्र कोई मान्य बह्र है तो मेरा मार्गदर्शन करें मैं अपनी इस्लाह वापिस ले लूँगा. एक निवेदन और है कि आप अपनी लिखी दो पंक्तियों के आधार पर बह्र लिखकर फिर उसी का निर्वाह करते हुए ग़ज़ल न लिखें. ऐसी ग़ज़लों से डायरियों या वेब के केवल पन्ने भरे जा सकते है लेकिन इनकी अदब की दुनिया में कोई महत्ता नहीं है. बल्कि पहले बह्र का चयन करें फिर उस पर ग़ज़ल लिखें. देखिये कैसी शानदार ग़ज़ल उतरती है फलक पर. जैसे मुशायरे में आपने बहर पर ग़ज़ल कही है. दिल खुश हो गया था पढ़कर. आप लिखते हुए काफ़ी आगे आ गए है अब वापिस लौटना ठीक है क्या?
अगर आप चाहे तो इस मंच पर हुए मुशायरों के पुराने आयोजनों और मंच पर प्रस्तुत हुई ग़ज़लों से बहरें लेकर गज़लें लिखे. मैंने भी यही प्रक्रिया अपनाई थी लगभग दस महीने पहले और उसका लाभ भी हुआ है. ये अपने व्यक्तिगत अनुभव से कह रहा हूँ. आशा है आप मेरी बातों के मर्म को समझेंगे.
गलतियों को इन्कलाब का नाम देने या नए प्रयोग के बहाने टालने से बेहतर है गलतियाँ न करना. संभवतः मैं अपनी बात स्पष्ट कर सका हूँ. सादर
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