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लखिया

लखिया रामनारायण पाठक की पुत्री थी. रामनारायण पाठक पेशेवर शिक्षक थे, पर लक्ष्मी की उसपर विशेष कृपा नहीं थी. परिवार के भरण-पोषण के बाद वे बमुश्किल ही कुछ जोड़ पाते थे. उसकी आमदनी तो वैसे दस हजार मासिक थी, लेकिन खर्च भी कम कहां था ? हाथ छोटा कर वह जो भी जोड़ता पत्नी की दवा-दारू में सब हवन हो जाता था. उसका परिवार बहुत बड़ा नहीं था. वे लोग गिने-चुने चार सदस्य थे – दो लड़कियां और अपने दो. बड़ी लड़की लखिया आठ वर्ष की थी और छोटी मित्रा पांच की. उसकी पत्नी भगवती खूब धरम-करम करती किंतु, अपने पेट की पीड़ा से वह पिछा नहीं छुड़ा पाती थी. पाठक जी ने उसके पेट की पीड़ा के लिए क्या नहीं किया, कई शहरों के नामी-गरामी डॉक्टरों से इलाज करवाए, लेकिन आजकल की बीमारियों पर तो आग लगे छुटने के नाम ही नहीं लेती ?

एक दिन अचानक रामनारायण पाठक दुनिया दारी से मुक्त होकर चिरस्थायी निद्रा में लीन हो गए. भगवती की दशा अब आगे नाथ न पिछे पगहा वाली हो गई थी. घर के मुखिया का इस तरह अचानक चल बसना अच्छे -अच्छों को भी तोड़ कर रख देता है और भगवती तो ठहरी सदा पेट की बीमारी से परेशान रहने वाली एक मरीज. अब उसे जीने की कोई इच्छा नहीं थी किंतु, अपनी बेटियों के लिए उसे जीना जरूरी था. वह जिन्दगी से भाग नहीं सकती थी. जीवन में सुरसा की तरह मुंह फैलाए खड़ी चुनौतियों से उसे जुझना ही था. उनसे आर-पार की लड़ाई लड़नी ही थी. उसे कृष्ण बनकर जीवन के इस रणभूमि में अपनी बेटियों का मार्गदर्शन करना था. आगे की चुनौतियों ने अपने पति के विषाद में डुबी भगवती को झकझोरकर उठा दिया था. उसे जल्द ही संभलने पर मजबूर कर दिया था. उसने भी मरते दम तक चुनौतियों से लड़ने का प्रण ले लिया था. आस-पास के छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर वह अपने जीवन की गाड़ी तिल-तिल आगे बढ़ाने लगी थी. अपनी दोनों बेटियों की परवरिश में उसने खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया था. कौन जाने किसका भाग्य में क्या लिखा है ?

लखिया बड़ी रूपसी थी और स्वभाव से उतनी ही चुलबुली भी. उसके अंग-अंग मानो सांचे में गढ़े गए हो. यौवन की दहलीज पर पांव रखते ही उसके रूप ने अद्भुत निखार ले लिया था. यौवन की मादकता आंखों में तिरछी चितवन बनकर, अधरों पर मधुर मुस्कान बनकर और बदन में आलस्य बनकर प्रकट होने लगी थी. उसने विश्व को मोह लेने वाला जगमोहिनी रूप पाई थी. गांव भर में वह सुन्दरता की मिसाल थी. वहां के लोगों को अपनी इस बिटिया पर फ़ख्र था.     

मिडिल पास कर अब वह हाई स्कूल में दाखिल हो गई थी. उसके मन में तरह-तरह के सपने पलने लगे थे. उसकी महत्वाकांक्षाएं लताओं की भांति डगडगाती हुई शिखर की ओर बढ़ने लगी थी. बचपन से ही उसपर जिन्दगी के कड़वे सच का दंश पड़ने लगा था. मुश्किलें इंसान को मजबूत बनाती है. पिता की मृत्यु के बाद लखिया को सिर्फ और सिर्फ परेशानियां ही नसीब हुई थी, जिसने कम उम्र में ही उसे काफी परिपक्व कर दिया था. वह खूब पढ़ना चाहती और आगे बढकर समाज के लिए कुछ करना चाहती थी, किंतु कभी-कभी घर की माली हालात उसे दुष्चिंता में डाल देती थी. उसका मन उदास हो जाता. सारे जोश, जुनून ठंडे पड़ जाते. किंतु, भगवती उसे सदा प्रोत्साहित करती रहती थी.

लखिया अब सयान हो गई थी. वह कॉलेज में दाखिला ले चुकी थी. उसका स्वभाव भी काफी बदल गया था. अब वह शर्मिली, संकोची और गंभीर स्वभाव की हो गई थी. सबसे नज़रे बचाती हुई वह कॉलेज आना-जाना करती थी. लोगों की कुदृष्टि का उसके मन में भय बना रहता था. वह एकदम पग-पग सचेत रहती थी. आए दिन देश-दुनिया में हो रही घटनाओं से भगवती का कलेजा कांप उठता था. बेटी को वह हमेशा सावधान करती रहती थी. दुनिया में कुछ लोग बड़े निर्मोही होते हैं. दूसरों की खुशी उनकी आंखों की किरकिरी बन जाती हैं. दूसरों के सुख-चैन लूटने में उन्हें वैसे ही आनन्द मिलता जैसे कसाई को निरीह पशुओं के कत्ल करने में मिलता है. खासकर लखिया जैसी खूबसूरत कलियों पर तो उनकी गिद्ध दृष्टि बनी रहती है. उनके रसीले जीभ लपलपाने लगते है. उनकी आंखों में हैवानियत का खून चढ़ आता है. वे अपना होशोहवास गंवा बैठते हैं और खिलने से पहले ही उस कली को अपने दरिंदे हाथों से मसल कर नष्ट कर देते हैं.

लखिया खूबसूरत थी. नवयुवकों का उसके प्रति आकर्षित होना तो स्वभाविक था. कॉलेज में कई लड़के उसके आगे पिछे मंडराते रहते थे. किंतु, उनकी नियत बुरी नहीं थी. उम्र का तकाजा था कि वे बस ऐसा स्वभाविक रूप से ही कर रहे थे. लखिया से उनकी नजरें टकरा गई या किसी बहाने उससे दो टूक बातें हो गई तो वे खुश हो जाते थे. गर्व से खुद की पीठ थपथपा लेते थे. लखिया को उन लड़कों से कोई भय नहीं था. उसे भय तो सिर्फ ललन से था. ललन बड़े बाप का बिगड़ेल औलाद था. दिन-रात वह अपनी ऐयासी में लगा रहता था. दुनिया की कोई ऐसी बुरी आदत शेष नहीं बची थी, जिसे उसने नहीं अपनाई हो. ड्रग से लेकर जुआ तक कुछ भी उससे अछूता नहीं था. उसका बाप धुरंधर सिंह भी कुछ वैसा ही दबंग किस्म का आदमी था. वह उस इलाके में कोयला माफिया का डॉन था. वहां की पुलिस भी उसके द्वार पर हाजिरी देने जाता था. उसकी करतूतों से जन-जन परिचित था किंतु, किसी के पास उसके विरूद्ध मुंह खोलने की ताकत नहीं थी. उसके विरूद्ध जाने वालों को वे सीधे उठवा देते थे.

ललन उसी कॉलेज में पढ़ता, जहां लखिया पढ़ती थी. बाप का ही पानी बेटा ने भी लिया था. अभी से ही बाप की तरह उसने भी दबंगाई शुरु कर दी थी. कॉलेज आना-जाना तो वैसे वह कम ही करता था. उसका ज्यादा समय तो घर और कॉलेज से बाहर ऐयासी करने में ही बितता था. किंतु, वह जब भी कॉलेज आता वहां हड़कंप मच जाता था. वहां की लड़कियां इधर-उधर छिपती फिरती और भय से कोई भी उसके सम्मुख नहीं आती थी. किसी लड़की पर अगर उसकी बुरी नजर पड़ गई तो फिर उसकी खैर नहीं. उसकी इज्जत-आबरू बच नहीं पाती थी. कॉलेज की कई लड़कियां उसके हवश का शिकार हो चुकी थी. उसके खिलाफ पुलिस, थाने सब कुछ हुआ था लेकिन, ढाक के वही तीन पात. आजतक उसे कोई सजा नहीं दिलवा पाया था. उसकी बुरी नजरों से बच कर रहने में ही सबको बुद्धिमानी लगती थी.

एक दिन अचानक लखिया का ललन से सामना हो गया था. वह कॉलेज से बाहर निकल ही रही थी कि अचानक कॉलेज के प्रवेश द्वार पर उसे अपने दोस्तों के साथ आता हुआ ललन मिल गया. वह डरी सहमी सिर झुकाए, किताबों को सिने से लगाए आहिस्ता-आहिस्ता आगे निकल गई थी. शुक्र था कि उसने लखिया को सिर्फ घुरकर देखा ही था. उसने ना किसी तरह की रोक-टोक की और ना ही उसके साथ कोई बदतमिजी की. वर्ना उसकी आदत इतनी अच्छी कहां थी ! वह तो लड़कियों को सीधे छेड़ना शुरू कर देता था. बदतमिजी पर उतर आता था.

लखिया सुन्दर थी इसीलिए वह ललन को पहली नज़र में ही भा गई थी. उसके दिल के किसी कोने में उसने कम्पन्न पैदा कर दिया था. धीरे-धीरे वह लखिया का आशिक़ बन गया. ये प्यार-व्यार भी क्या चीज है आज तक किसी को समझ नहीं आया है. इसकी ना कोई परिभाषा है, ना रूप, ना रंग, ना गंध. ढाई अक्षर के इस शब्द में ही सारा जादू समाया हुआ है, जिसने ना जाने कितने को मजनू, रांझा और फरहाद बना डाला है. आज उसी जादू के भंवर में एक और हलाल हो गया था. ललन का वैसे ही ज्यादातर समय सुन्दर-सुन्दर लड़कियों की बाहों में ही गुजरता था किंतु, उनमें से किसी से उसे प्यार नहीं हुआ. उसके दिल की गाड़ी गांव की भोली-भाली निर्दोष बाला लखिया पर जा अटकी थी. दोनों के बीच कितनी असमानताएं थी. ललन जहां बुराइयों के कीचड़ से लथपथ था, वहीं लखिया मानसरोवर में खिले कमल की ताजी पंखुड़ियों सी निर्मल. ललन निष्ठुर पाषाण दिल था तो लखिया शरदकाल के अलसाई सुबह में दूब के ऊपर पड़ी ओस की बूंद की तरह कोमल.

“साले जो भी हो किंतु, लखिया है बड़ी सुन्दर” – एकदिन ललन ने बातचीत के दौरान अपने दोस्तों से कहा.

कौन लखिया ? – उसके दोस्तों ने हैरानी से पूछा.

वही नई लड़की, डरी सहमी-सी नज़रे झुकाए चलने वाली. – ललन ने शब्दों के अनुरूप अपना सर हिलाते हुए कहा.

उसके दोस्तों को बड़ा आश्चर्य हुआ. आजतक उसने किसी भी लड़की को उसका नाम लेकर संबोधित नहीं किया था. उसके जुबान पर लड़कियों के लिए बस ‘लौंडिया’ शब्द ही आता था. लड़कियों के प्रति ना उसका कोई सम्मान था और ना ही इज्जत. उन्हें केवल वह उपभोग की वस्तु मानता था. किंतु, आज अचानक लखिया के लिए उसके मन में सम्मान देखकर उनके दोस्तों को हैरानी हुई.

क्यों आपको उसका नाम कैसे पता ? – एक दोस्त ने पूछा.

ललन मुस्कराते हुए बोला – मैंने उसकी बायोग्राफी पता कर ली है. वह बिसनपुर के स्वर्गवासी शिक्षक रामनारायण पाठक की बेटी है. ईमानदारी के क्षेत्र में उसके पिताजी का काफी नाम था. पापा बता रहे थे कि एक बार उसके साथ पापा का भी पंगा हो गया था. वह पापा को अंदर करवाने की धमकियां भी दे गया था किंतु, किस्मत से वह खुद ही ऊपर चला गया था, वर्ना पापा को ही अपना हाथ गंदा करना पड़ता.

तो तू उसपर इतना हमदर्दी क्यों जता रहा है ? – दूसरे दोस्त ने पूछा.

एक्चुअली वह मुझे बहुत प्यारी लगती है. उसे देखते ही मेरे दिल में कुछ-कुछ होने लगता है. – ललन ने कहा.

तब बताओ. कब तुम्हारी सेवा में उसे हाजिर करूं ? – तीसरे दोस्त ने कहा.

नहीं....नहीं उसके साथ मैं ऐसा नहीं कर सकता. उसे दुख होगा. मैं तो उसे दिल की रानी बनाना चाहता हूं. उसका सच्चा प्यार पाना चाहता हूं. उसके मन को जीतना चाहता हूं. तुमलोग उसके साथ कोई बदतमीजी मत करना – ललन ने सभी को चेताया.

कॉलेज में कई बार लखिया का सामना ललन से हुआ किंतु, उसके साथ किसी प्रकार का कोई बदतमीजी नहीं हुई. धीरे-धीरे लखिया के मन में ललन से जो डर था वह जाता रहा. ललन के स्वभाव में भी काफी बदलाव आ गया था. उसने भी अपनी बुरी हरकतें कम कर दी थी. कम से कम कॉलेज में तो उसने शराफत दिखानी शुरू कर दी थी. अब ना किसी लड़की को वह छेड़ता और ना ही किसी के साथ कोई बदतमीजी करता. उसने अपनी पाश्विकता त्याग दी थी और इनसान के दल में शामिल होने के लिए वह पंक्ति में खड़ा हो चुका था.

एक दिन उसने कॉलेज केम्पस के बाहर रास्ते में लखिया को रोक कर कहा – लखिया ! मैं तुम्हें चाहने लगा हूं और तुमसे शादी करना चाहता हूं.

लखिया ने कुछ जवाब नहीं दिया और वह आगे बढ़ गई. लड़कियों की चुप्पी में ही हां छिपा होता है इसी मानसिकता में आधी दुनिया जीती है. इसी मानसिकता की वजह से ना जाने कितने आशिकों के दिल का आशियाना उजड़ा है. कितने देवदास बनकर दर-दर भटकता रहा है. कितनों ने अपना सुख-चैन गंवाया है और ना जाने कितनों ने अपनी जान गंवाई या फिर निर्दोष लड़कियों पर आफ़त ढ़ाही है.

ललन भी आज उसी मानसिकता का शिकार हुआ था और उसने मन ही मन मान लिया था कि लखिया को उसका प्रस्ताव मंजूर है लेकिन, वह शर्म से बोल नहीं पा रही है. अपने दोस्तों में भी उसने यह बात फैला दी. शीघ्र ही यह बात पूरे कॉलेज में वाइरस की तरह फैल गई. लखिया से कई सवाल होने लगे, जिसका कोई जवाब उसके पास नहीं था. कुछ लड़कियों ने तो उसपर ताना कसना भी शुरू कर दिया था. सबकी नज़रों में वह गिरने लगी थी. कॉलेज के इस माहौल में उसका दम घुटने लगा था. कॉलेज में उसके बारे में हो रही तरह-तरह की बातें अब उसके बर्दास्त से बाहर हो गई थी. एक दिन तंग आकर उसने ललन से ही दो हाथ कर लेने का फैसला कर लिया.

तुम्हारी हिम्म्त कैसी हुई मेरे बारे में ऐसी अफ़वाह फैलाने की ? किसने कहा कि मैं तुमसे शादी करने के लिए तैयार हूं ? मेरी किस्मत फ़ूटी नहीं है, जो मैं तुमसे शादी करूंगी. तुम्हारे जैसे गुंडा से शादी करने से भला है कि मैं गंगा में कूद कर अपनी जान दे दूं. – सबके सामने उसने ललन को एक दिन झाड़ लगा दी.

उस दिन के बाद वह कॉलेज में बहुत कम ही दिखी. कॉलेज से एक तरह से उसका मन घबरा गया था. कॉलेज की सारी बातें उसने अपनी मां को बता दी. मां का दिल घबरा गया. उस दबंग के विरुद्ध जाने का मतलब खुद के ही पांव में कुल्हाड़ी मारना था. उसकी मां ने भलाई इसी में समझी कि कहीं कुछ ऊंच-नीच हो जाए इससे पहले बेटी की शादी कहीं कर दी जाए.

आज भगवती के घर खूब चहल पहल थी. आपुस कुटुम्ब लगन-हांडी के साथ एक-एक कर उसके घर आ रहे थे. आस-पास की स्त्रियां अतिथियों की द्वार छेकाई कर उनका आव-भगत करने में व्यस्त थी. सबके मुखमंडल पर आनन्द और खुशी के भाव नाच रहे थे. भगवती मशीन-सी दौड़ती फिरती सबको अलग-अलग कामों की जिम्मेदारियां सौंप रही थी. घर की सजावट का काम भी पूरा हो चुका था. खर्च के हिसाब-किताब की जिम्मेदारी भगवती का भाई दीनानाथ संभाल रहा था. लखिया की शादी में बस दो दिन शेष रह गए थे. मन में वह शादी को लेकर उत्साहित थी किंतु, अंदर से भयभीत भी. ज्यों-ज्यों शादी का समय निकट आ रहा था उसके दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी. आस-पास की हमउम्र लड़कियां उसके घर आकर वहां के वातावरण को गीतमय कर रही थी.

वह दिन भी आ गया, जिसका सभी को बेशब्री से इंतजार था. आज लखिया के लिए दूर शहर से कोई डोली सजाकर उसे लेने आ रहा था. लखिया भी दुल्हन के रूप में पूरी तरह सज संवर कर तैयार थी. लखिया तो सुन्दर थी ही किंतु, दुल्हन के रूप में तो वह अद्भुत लग रही थी मानो स्वर्ग से कोई परी उतर आई हो. वहां का पूरा माहौल आनन्दमय था. भगवती बाहर से प्रसन्न होने का दिखावा कर रही थी किंतु, अंदर ही अंदर वह कलप रही थी. उसने अपना खून से सींचकर जिगर के जिस टुकड़े को बड़ा किया था, आज वह उससे दूर जा रही थी. लाख कोशिश करने के बावजूद भी वह खुद को संभाल नहीं पा रही थी. लखिया ने उसे नहीं रोने की सौगंध दे रखी थी किंतु, मां की ममता को भला कोई बांध क्या रोक पाए. एकांत पाते ही वह छुप-छुप कर रो लेती लेकिन, सामने वाले को अपना दर्द का अहसास नहीं होने देती. अपना मन को उसने काफी समझाया और दिल मजबूत किया. बेटी पराया धन है एक ना एक दिन तो उसे डोली में बिठाकर खुद से दूर करना ही पड़ता. जिसपर अपना कोई वश नहीं चले तो भला अपना दिल को नाहक छोटा क्यों किया जाए ?

रात 8 बजे पूरे गाजे-बाजे के साथ वहां बारात आ गई थी. बाहर नाच-गान की धूम चल रही थी और अंदर वरमाला की रस्म के लिए लखिया के मेक-अप को अंतिम रूप दिया जा रहा था. पटाखों की धूम-धड़ाके के साथ मस्ती का माहौल बना हुआ था. सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त थे. बारातियों का दल बेंड-बाजे के ताल पर थिरक रहा था. बारातियों की उसी भीड़ में ललन अपने दोस्तों के साथ वहां आ पहुंचा था. वह शराब के नशे में चूर था. डगमगाते कदमों के साथ वह स्टेज तक पहुंचने का प्रयास कर रहा था. वह लखिया को अपना बनाना चाहता था किंतु, अब लखिया उसके हाथ से निकल रही थी. इसीलिए उसकी आंखों में खून सवार हो गया था.  उसने ठान लिया था कि अगर लखिया उसकी नहीं हुई तो वह उसे किसी और की भी नहीं होने देगा.

चारों ओर लोग बैंड बाजे की धुन में नाच रहे थे. दुल्हा स्टेज पर बैठा था. बारातियों में दुल्हन की झलक पाने की उत्सुकता बनी हुई थी. उसी समय दुल्हन को उनकी सहेलियां वरमाला के लिए स्टेज पर धीरे-धीरे ला रही थी. दुल्हन को देखते ही बारातियों ने उसका जोरदार स्वागत किया. तालियों और सिटियों से आसमान गुंज उठा. दुल्हन के पांव होले-होले स्टेज की ओर बढ़ रहे थे. उसकी सहेलियां उसे घेरी हुई थीं. दुल्हन के हाथ में आरती की थाली सजी हुई थी और वह मंद-मंद मुस्करा रही थी.

उधर ललन ताक लगा रहा था. धीरे-धीरे उसने अपने पॉकिट से रिवाल्वर निकाल लिया था. वह जल्दी-जल्दी स्टेज के करीब पहुंचने का प्रयास करने लगा. वहां भीड़ भी खचाखच थी. वह सभी को धक्का देते हुए आगे बढ़ता गया. वह अब स्टेज के काफी करीब पहुंच चुका था, जहां से वह लखिया को पूरी तरह देख सके. उसने रिवॉल्वर को लोड किया और हाथ धीरे-धीरे थोड़ा ऊपर उठाया. भीड़ से नजरें बचाकर उसने लखिया के सीध अपना हाथ ले गया और उसके सिने पर सीधा निशाना साधा.

वहां मस्ती भरा माहौल था. महिलाएं अपने मधुर स्वर में नेग गीत गा रही थी. सबके मुखमंडल पर आनन्द ही आनन्द छाया हुआ था. दुल्हन के रूप-लावण्य को देखकर वहां हर कोई मंत्र-मुग्ध था लेकिन, ललन और उनके दोस्तों के दिल की धड़कन तेज़ हो हई थी. दुल्हन के रूप में लखिया के रूप-सौन्दर्य देखकर ललन के दोस्तों का भी दिल पसीजने लगा था किंतु, अब वे कुछ नहीं कर सकते थे. वे लोग ललन से बहुत दूर खड़े थे और उस भीड़ में ललन तक पहुंचना उनके लिए असम्भव था. ललन की अंगुली रिवॉल्वर के ट्रीगर को स्पर्श करती हुई उसपर अपनी पोजिशन ले चुकी थी. उसकी आंखों में खून सवार था. ट्रीगर दबाने से पहले वह एक बार लखिया को जी भर कर देख लेना चाहता था. लखिया आनन्दमग्न थी. उसके चेहरे पर अद्भुत-सी चमक आ गई थी. जिस लखिया को उसने अपने सामने हमेशा डर से सहमी हुई देखी थी, उसे आज पूर्ण निडर और आत्मविश्वास से लबरेज देखकर वह खुद आश्चर्य चकित था. लखिया ने दुल्हे के ललाट पर तिलक लगाकर उसकी आरती उतारी. उसकी सहेलियों ने दुल्हा और दुल्हन दोनों के हाथों में वरमाला दे दी. वरमाला पहनाने के लिए लखिया ने ज्योंही अपना हाथ ऊपर किया ठांय...ठांय...ठांय की जोरदार ध्वनि के साथ तीन गोलियां चल गई. भींड़ में एकदम-सी भगदड़ मच गई थी. किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, बस सब अपनी जान बचाने के लिए बेतहासा इधर-उधर भागे जा रहे थे.

गोलियां चलने की आवाज़ सुनते ही ललन के दोस्त वहां से पलायन हो गए थे और ललन लखिया के पैरों पर गिरकर माफी मांग रहा था. उसकी आंखों में अब खून नहीं बल्कि, पश्चाताप के आंसू थे. उसका नशा उतर गया था और अब वह पूरे होशोहवास में था. अपने दाएं हाथ में वह रिवॉल्वर थामे हुए था, किंतु उसमें अब गोलियां नहीं थीं. सारी गोलियां उसने हवा में दाग दी थी. लोग अब स्टेज पर जमा होने लगे थे.

अपने घुटनों के बल खड़ा होकर उसने लखिया से कहा - लखिया मुझे माफ कर दो. मैं तुम्हें जान से मारने आया था, क्योंकि तुमने मेरी बात नहीं मानी थी. मुझे छोड़कर तुम किसी और से शादी करने जा रही थी. मुझे इसकी खबर मिलते ही मैं आपे से बाहर हो गया था और अपने दोस्तों के साथ तुम्हें जान से मारने आया था लेकिन, मैं चाहकर भी तुम पर गोली नहीं चला सका और सारी गोलियां हवा में दाग दी, क्योंकि मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं. तुमने मेरी आंखें खोल दी है. मैं सचमुच बहुत बुरा हूं. सभी लड़कियां मुझसे डरती हैं इसीलिए कोई मुझसे प्यार नहीं करती. अबतक मैंने सिर्फ़ दूसरों को मजबूर किया था किंतु, आज तुमने मुझे मजबूर कर दिया है. मेरे पास ऐशोआराम की सारी चीजें है फिर भी मैं तुम्हारा प्यार नहीं पा सका, क्योंकि मेरे पास इनसानियत की कमी है. आज मैं तुमसे वादा करता हूं कि अब मैं एक आम इनसान की तरह जिन्दगी जीऊंगा. तुम मेरी नसीब में ही नहीं थी इसीलिए रब से दुआ है कि तुम जहां रहो खुशहाल रहो.     

तब तक वहां पुलिस आ चुकी थी. थानेदार साहब ने उसे धकियाते हुए उठाया और उसका कॉलर पकड़ते हुए एकदम कड़क आवाज़ में कहा - साले ! गुंडा गर्दी करते हो ? भीड़ में गोलियां चलाते हो ? चलो आज तुम्हें थाने में बदलाता हूं. ऐसी धारा तुमपर ठोकूंगा कि जिन्दगी भर जेल में ही सड़ोगे.

हां थानेदार साहब ! इस दरिंदे को कड़ी से कड़ी सजा दीजिए. इसने मेरी बेटी का जीना मुश्किल कर दिया था और आज इसे जान से मारने पहुंच गया है, इसे छोड़िएगा मत. – लखिया की मां ने ललन को कोसते हुए कहा.

नहीं थानेदार साहब ! इसका कोई कसूर नहीं है. यह मेरा अच्छा दोस्त है. हम एक साथ कॉलेज में पढ़ते है और आज मेरी शादी में यह मेरे निमंत्रण पर ही आया था. इसने अपनी खुशी जाहिर करने के लिए आसमान में गोलियां चलाई थी किसी को डराने या हानि पहुंचाने के लिए नहीं. अगर इसे गोलियां चलाने की अनुमति नहीं है तो आप इसपर कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं, अन्यथा इसे प्लीज छोड़ दीजिए. – लखिया ने थानेदार साहब से अनुरोध किया.  

ठीक है मैडम ! हम ऐसा ही करेंगे. फिलहाल इसने गोलियां चलाई है इसीलिए थाने ले जाना जरूरी है. – थानेदार ने कहा.

जैसा आप उचित समझे, प्लीज. – लखिया ने कहा.

थानेदार साहब ने अपनी जिप्सी में उसे बैठाकर थाने ले गया.  

लखिया की मां अपनी बेटी को आश्चर्य से देख रही थी कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया ? उसे दण्ड दिलाने के बजाय उसका बचाव क्यों किया ?

लखिया समझदार थी. उसे पता था कि उसपर कड़े आरोप लगाकर भी उसे सजा नहीं दिलाई जा सकती थी. थानेदार नए थे. उसे ललन और उसके बाप के बारे में पता नहीं था इसीलिए वह हेंकड़ी दिखा रहा था, वर्ना उसे थाने तक ले जाने की भी हिम्मत उसमें कहां होती ? ललन का हृदय परिवर्तन हो गया था इसीलिए उसे सजा दिलवाकर उसके अंदर छिपे जानवर को वह फिर से नहीं जगाना चहती थी. शादी की प्रक्रिया फिर से आरम्भ हो गई. लोग फिर एक बार झुम उठे.

 

समाप्त

    

 

          

 

 

 

 

 

 मौलिक एवं अप्रकाशित 

@Govind

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Comment

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Comment by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 4, 2015 at 2:25pm

आ. राजेश कुमारी जी, आपको कहानी अच्छी लगी, बहुत-बहुत धन्यवाद. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 4, 2015 at 12:28pm

कहानी का अंत बहुत प्रभावित करता है और एक अच्छा सन्देश/सीख भी छोड़ता है बहुत- बहुत बधाई गोविंद पंडित जी.  

Comment by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 4, 2015 at 11:45am

आदरणीया प्रतिभा जी, आपने समय निकालकर मेरी कहानी पढ़ी, इसपर प्रतिक्रिया दी, कहानी आपको अच्छी लगी इसके लिए मैं अपना आभार प्रकट करता हूं. जहां तक सलमान खान की किसी पिक्चर की कहानी से समानता का प्रश्न है तो यह एक संयोग मात्र  ही है. जैसा कि मैंने चर्चा में स्पष्ट कया है कि यह कहानी मैंने दस साल पहले ही लिखी थी और तब हमारे यहां ब्लैक & व्हाइट टी वी पर केवल एक दूरदर्शन चैनल की सुविधा थी, जिसमें लेटेस्ट मूवी आने का कोई सवाल ही नहीं उठता और हमारे गांव से शहर बहुत दूर था इसीलिए सिनेमाघरों में भी जाने का अवसर नहीं मिलता था. इसीलिए यह कहानी मेरे खाली दिमाग की उपज थी. 

सधन्यवाद, 

 

Comment by pratibha pande on August 3, 2015 at 8:04pm
आ० गोविन्द जी शुरू शुरू में ऐसा लगा कि सलमान खान की लगभग दस वर्ष पहले एक पिक्चर आई थी ये कुछ वैसा ही है ,पर फिर धीरे धीरे सार समझ में आने लगा . अंत बहुत अच्छा बना है,बधाई आपको
Comment by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 3, 2015 at 6:43pm

आदरणीय सौरभ सर, भविष्य में आपके इस सुझाव का मैं शत-प्रतिशत अनुपालन करूंगा. मेरे व्यक्तित्व की परिपक्वता रूपी नींव में आपने एक और ईंट जोड़कर मुझे कृतार्थ किया. इसके लिए आपका आभारी हूं.

सधन्यवाद,  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2015 at 5:01pm

आदरणीय भाई, सांकेतिक ढंग से या ’समझ’ बनाते हुए कुछ कहना आज की महती आवश्यकता है. अन्यथा बात सटीक होती हुई भी डाइवर्सन पर जाने लगती है. फिर उसे सँभालना तनिक अधिक ’बल’ की अपेक्षा करता है.  

आपसे, आदरणीय, ऐसा कुछ मैंने इस कारण कहा कि आपने प्रस्तुत कथा को इस मंच पर पोस्ट करते ही इसे आनन-फानन में कई साइटों से साझा कर लिया. फ़र्ज़ कीजिये, इस कथा पर सुधीजनों की कोई सलाह आयी या किसी ने विधाजन्य सुझाव दिया तो क्या आप उसे स्वीकार कर मूल कथा में तदनुरूप बदलाव नहीं करेंगे ?  फिर बिना आवश्यक सुधार के इसे अन्य साइट के पाठकों को क्या सुनाना ? अन्य साइटों पर तो ’वाह वाह’, ’बहुत खूब’ ’लाज़वाब’ आदि तो मिलना ही है. लेकिन ओबीओ पर संभवतः आवश्यक नहीं कि ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ आयें. हालाँकि मैंने आपकी कथा अभी पढ़ी नहीं है. पढ़ कर अवश्य वापस् आऊँगा.

मेरा अनुरोध मात्र इतना ही है, कि आप या कोई रचनाकार हो, अपनी रचना को एक सार्थक बहस से तो गुजर जाने दे. 

Comment by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 3, 2015 at 3:14pm

आदरणीय सौरभ पांडे सर, आपलोगों का सुझाव मेरे लिए सिरोधार्य है. बहरहाल, आपका सांकेतिक इशारा समझने का मैं पूर्ण दावा तो नहीं कर सकता हूं किंतु, संभवत: इसे मैं समझ गया हूं और भविष्य में इसपर आपको दोबारा टिप्पणी करने का अवसर नहीं दूंगा. 

मुझे उम्मीद है कि मैंने यह बात जिस संदर्भ में कही है आप भी कृपया उसी संदर्भ में लेंगे और इसे किसी अन्यथा भाव से नहीं जोड़ेंगे. 

सादर, 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2015 at 12:32pm

आपको, आदरणीय गोविन्दजी, संभवतः भान हो गया होगा कि मैंने आपसे ऐसा क्यों पूछा है. आपने यथोचित भी उत्तर दिया है - सुधिजनों की प्रतिक्रिया पाकर मैं खुद को तरासने का प्रयास करता हूं. 

किन्तु, आदरणीय, इस उच्च भावना के पीछे सिर्फ़ सुनाना उचित नहीं है. बल्कि सुनना भी आवश्यक है. मानिये कि आपकी प्रस्तुत हुई इस कथा पर वैधानिक, व्याकरणीय या विधाजन्य सुझाव मिलते हैं. सुधीजन आपसे आपकी कथा पर विमर्श करते हैं तो आपको कैसा लगेगा ? आप स्वीकार कर पायेंगे ?

बिना सोचे ही ’हाँ’ या ’अवश्य’ न कहियेगा. 

धन्यवाद. 

Comment by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 3, 2015 at 11:18am

आदरणीय सौरभ पांडे सर, यदि दिल की बात करूं तो सच्चाई यह है कि बचपन से ही मुझे लिखने का बहुत शौक था, किंतु ज्ञानाभाव , अपरिपक्वता तथा विषम परिस्थितियों के कारण इस ओर मैं विशेष ध्यान नहीं पाया था किंतु, अब कुछ हद तक उन परिस्थितियों से मैं उबर चुका हूं इसीलिए खाली समय में कुछ लिखने का प्रयास करता हूं. इसी कड़ी की कहानी 'लखिया' मैंने 2004 में लिखी थी, जिसे कुछ मॉडिफाई कर आपके इस मंच में पोस्ट किया हूं.

जहां तक सवाल है मंशा या उद्देश्य की तो मैं यहां स्पष्ट करना चाहूंगा सर कि इसके पिछे मेरा कोई ठोस मंशा नहीं है. बस आप जैसे सुधिजनों की प्रतिक्रिया पाकर मैं खुद को तरासने का प्रयास करता हूं. आपके इस मंच से जुड़े सभी सदस्यों का मैं तह-ए-दिल से आभारी हूं.  

आपलोगों की बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में,

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2015 at 10:43am

आदरणीय गोविन्द पंडितजी, आपने अपनी कथा ’लखिया’ मंच पर प्रस्तुत की इस हेतु हार्दिक धन्यवाद. आपकी कथा को पढ़ कर कोई टिप्पणी की जाये, उससे पहले आपसे पूछना आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि इस मंच पर अपनी रचना को प्रस्तुत करने के पीछे आपकी मंशा या उद्येश्य क्या है ? 

आप यदि उत्तर दें तो कई तथ्य स्पष्ट हो पायेंगे. 

शुभेच्छाएँ 

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