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ग़ज़ल : ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

हों जुल्म बेहिसाब तो लोहा उठाइये

ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

 

जिसको चुना है दिन की हिफ़ाजत के हेतु वो

खा जाए आफ़ताब तो लोहा उठाइये

 

भूखा मरे किसान मगर देश के प्रधान

खाते मिलें कबाब तो लोहा उठाइये

 

पूँजी के टायरों के तले आ के आपके

कुचले गए हों ख़्वाब तो लोहा उठाइये

 

फूलों से गढ़ सकेंगे न कुछ भी जहाँ में आप

गढ़ना हो कुछ जनाब तो लोहा उठाइये

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 9, 2015 at 4:21pm
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी
Comment by Pari M Shlok on July 9, 2015 at 3:14pm
भूखा मरे किसान मगर देश के प्रधान
खाते मिलें कबाब तो लोहा उठाइये

पूँजी के टायरों के तले आ के आपके
कुचले गए हों ख़्वाब तो लोहा उठाइये

वाह सर ज़वाब नहीं लोहा उठाइये..... गज़ब

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 9, 2015 at 12:48pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी शानदार ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

कृपया ध्यान दे...

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