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ग़ज़ल - फिल बदीह -- मुझमें पैठा हुआ कोई डर ज़िन्दगी ( गिरिराज भंडारी )

212       212       212        212

के छू तो कभी बामो दर ज़िन्दगी

मुझमें पैठा हुआ कोई डर ज़िन्दगी

 

क्यों तू नारा है इस क़दर ज़िंदगी

क्या मैं इतना लगा पुरखतर , ज़िन्दगी ?

आँधियाँ ग़म की आयें , चलो ठीक है

तेज़  लेकिन न हों  इस क़दर ज़िन्दगी

 

तू कभी मावसी रात में , चाँदनी

गर बने तो इधर भी बिखर ज़िन्दगी

 

ले जिया माहो ख़ुर्शीद से दो घड़ी

कुछ समय के लिये तो निखर ज़िन्दगी

 

वक़्त ने काटे थे जो मेरे बालो पर

तू ही लौटा दे वो बालो पर ज़िन्दगी

 

एक दिन की हँसी को सँजो ले कहीं

फिर तो रोयेगी तू साल भर ज़िन्दगी

 

किस क़दर थी खुशी उन फज़ाओं में कल

फिर उसी राह से तू गुज़र ज़िन्दगी

******************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 8, 2015 at 5:47am

आदरणीय सौरभ भाई , आपको तो मालूम है , इस गज़ल ( दाल ) में  कोई भी छौंक नहीं है , सादी दाल है , जैसी की वैसी । ये गज़ल लिख गई है , कहीं कोई प्रयास नहीं है । इसीलिये शायद कुछ फीकी रह गई । देखूँगा कुछ सोच के । वैसे मन नहीं है ।उचित सलाह के लिये आपका आभारी हूँ ।

// वैसे ये आजकल फ़िलबदीह करके खूब सुन रहा हूँ .. ये माज़रा क्या है, सर ? //   आदरणीय पिछली गज़ल मे विस्तार से जवाब लिख दिया हूँ  , आभार ॥  

// माज़रा क्या है, सर ? //   आपसे सर सुनना अच्छा लगा , वैसे बाक़ी सब को मना करता हूँ  , लेकिन इस भाव मे तो सर भी स्वीकार है

बहुत शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 8, 2015 at 5:40am

आदरणीय सौरभ भाई , आपको तो मालूम है , इस गज़ल ( दाल ) में  कोई भी छौंक नहीं है , सादी दाल है , जैसी की वैसी । ये गज़ल लिख गई है , कहीं कोई प्रयास नहीं है । इसीलिये शायद कुछ फीकी रह गई । देखूँगा कुछ सोच के । वैसे मन नहीं है ।उचित सलाह के लिये आपका आभारी हूँ ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2015 at 6:24pm

रुक रुक के बढ़ती हुई ग़ज़ल लगी ये आदरणीय गिरिराज भाई.
थोड़ी और छौंक मारनी थी.. ज़िन्दग़ी के मसाला वाली.

वैसे ये आजकल फ़िलबदीह करके खूब सुन रहा हूँ .. ये माज़रा क्या है, सर ?


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 3:43am

आदरणीय गिरिराज सर, बेहतरीन फिल बदीह ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 24, 2015 at 8:29pm

आदरणीय हरि प्रकाश भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 24, 2015 at 8:28pm

आदरणीय वीनस भाई , आपका आभार ।

Comment by Hari Prakash Dubey on June 24, 2015 at 6:15pm

आ के छू तो कभी बामो दर ज़िन्दगी
मुझमें पैठा हुआ कोई डर ज़िन्दगी......वाह   शानदार  ग़ज़ल है आदरणीय गिरिराज सर , बधाई  ! सादर  

Comment by वीनस केसरी on June 24, 2015 at 12:38am

एक विशेष मनः स्थिति में कही गयी ग़ज़ल, अपने साथ ज़िंदगी के तमाम पहलुओं को ले कर बढ़ रही है


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 22, 2015 at 12:28pm

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , आप से मिली दाद हिम्मत बढ़ा देती है , आपका दिली शुक्रिया ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 22, 2015 at 12:24pm
आ. गिरिराज जी, बड़े खूबसूरत अश’आर हुए हैं। दाद कुबूल कीजिए

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