पत्थर-दिल पूँजी
के दिल पर
मार हथौड़ा
टूटे पत्थर
कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा
अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़लूमों के घर
मौसम अच्छा हो कि बुरा हो
इस पर कोई फ़र्क न पड़ता
चोटी पर हो या खाई में
आसानी से नहीं उखड़ता
उखड़ गया तो
कितने ही मर जाते
इसकी ज़द में आकर
छूट मिली इसको तो
सारी हरियाली ये खा जाएगा
नाज़ुक पौधों की कब्रों पर
राजमहल ये बनवाएगा
रोको इसको
वरना इक दिन
सारी धरती होगी बंजर
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी,
बहुत ही बढ़िया नवगीत हुआ है
इसकी गेयता तो सुन्दर है ही लेकिन शब्द भी खनखना रहे है
निराला की परंपरा में जो रचनाये लिखी गई आपकी रचना उसी स्तर और परंपरा की है
बाकि सौरभ सर ने इतनी बेहतरीन समीक्षा की है कि मेरे पास और कुछ अतिरिक्त कहने के लिए नहीं है
हाँ एक बात नवगीत में यह प्रयोग सफल दिखाई दे रहा है इसलिए मैं भी प्रयास करता हूँ
आपको इस सफल प्रयोग और बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई और आभार
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, यह भी महान आश्चर्य है कि इस माह की १३ तारीख को प्रस्तुत हुई रचना पर २४ तारीख तक एक प्रतिक्रिया नहीं आयी है ! दो बातें हो सकती हैं, या तो रचना का स्तर प्रतिक्रिया लायक नहीं है, या, रचना को समझने वाले कायदे से पाठक इस मंच पर नहीं हैं.
कहना न होगा, दूसरा कारण समीचीन हैं. यह सक्रिय पाठकों के पाठकत्व में व्याप गये महान असंतुलन का परिचायक है. खैर.. इस पर अभी अधिक कुछ कहना उचित नहीं है.
वैसे, आप भी, आ. धर्मेन्द्रजी, एक पाठक के तौर पर ’चले है नदी के किनारे-किनारे’ वाली आदत के और शैली के दोषी हैं.
आपको नवगीत पर प्रयासरत होते देखना भला लगा है. आपके नवगीत का पत्थर लगातार बढ़ता हुआ ’पत्थर’, या, कहिये ’चट्टान’ है. इसके माध्यम से पूँजीपतियो का बिम्ब रोचकता से काढ़ा गया है. यह अभिनव प्रयोग रोचक है. आगे, बन्द में बुर्ज़ुआ वर्ग के विरुद्ध पानी पी-पी कर कोंसने का काम हुआ है, जिसकी भावदशा में हालाँकि वही-वहीपन तारी है. अलबत्ता, कथ्य और प्रस्तुतीकरण कई जगह प्रभावित करता हुआ बन पड़ा है.
कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा
अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़लूमों के घर................... इस पूरे बन्द में कई इंगित हैं और सभी प्रभावित करते हैं. बढिया प्रयास हुआ है आदरणीय.
छूट मिली इसको तो
सारी हरियाली ये खा जाएगा
नाज़ुक पौधों की कब्रों पर
राजमहल ये बनवाएगा
रोको इसको
वरना इक दिन
सारी धरती होगी बंजर.................... पूँजीवद या बाज़ारवाद को नकारा नहीं जा सकता. कोई वर्ग लाख गरिया ले, किन्तु इनको रोकना असम्भव है. हाँ, इसके दुष्परिणामों पर चर्चा न हो यह तो साहित्यिक ही नहीं मानवता के विरुद्ध भी घोर असंवेदनशीलता का द्योतक होगा. उस हिसाब से यह बन्द आत्मीय संतोष देता है. हम विवश हुए ’धरती को बंजर’ होता हुआ देख रहे हैं.
नवगीत विधा पर इस प्रयास केलिए साधुवाद एवं हार्दिक शुभेच्छाएँ.
सादर
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