जिज्ञासा
प्रश्न?
केवल प्रश्नों के घेरे में
छटपटाता जीवन,
चीर दिया आकाश
फिर भी चंचल था यह मन
वह था मेरा प्यारा बचपन ;
हाईफन –
यौवन का हाईफन लाया
तटस्थ जीवन
क्या किसीसे हो पाया
कोई सेतु बंधन !
व्यर्थ,
व्यर्थ ही कुछ क्रंदन ;
अल्पविराम ,
प्रौढ़त्व के अल्पविराम पर
टिका हुआ है जीवन
इच्छाओं के जंगल से निकलकर
जान पाया मन
जीवन है एक उपवन ;
अंत में,
पूर्णविराम के साथ
हे मेरे ईश्वर,
प्रशांति के वलय में क्या
दोगे मुझको उत्तर
मेरे उस मूल प्रश्न का !!!
बशर्ते तुम्हें मालूम हो.....
(मौलिक तथा अप्रकाशित रचना)
Comment
आदरणीय शरदिन्दुजी, आपकी प्रस्तुति पर विलम्ब से आ रहा हूँ. किन्तु, पढ़ते ही बिम्बों के आयाम से मंत्रमुग्ध सा हो गया हूँ.
ईश्वर की अवधारणा को बिना चोट पहुँचाये उसे मानवीय धरातल पर ले आना रोचक लगा. जीवन की अवस्थाओं को समझ के अनुसार ही बाँधना उचित है.
हार्दिक बधाई आदरणीय.
परम आदरणीय शरदिंदु मुकर्जी सर इस विशिष्ट कविता की प्रस्तुति हेतु आभार
चिन्हों के माध्यम से जीवन की विभिन्न स्थितियों को परत दर परत खोलती इस उच्च भावभूमि की कविता हेतु नमन
आदरणीय दादा श्री
आपकी व्याख्या ने तो मानो आँखें ही खोल दी . भावनाओं की उच्च भूमि पर अवस्थित इस कविता को प्रणाम . सादर .
अज्ञानतावश मैंने 'आत्मगीत' कहा!चूँकि कवि अपने ही विषय में बार बार प्रश्न कर रहा है!
आ० आपके द्वारा आ० गोपाल सर को दिए गए प्रतिउत्तर से बहुत कुछ स्पष्ट हुआ,पर रचना के अंत में..''बशर्ते तुम्हें मालूम हो..''
पर संशय कायम रहा,यदि व्यक्ति आस्तिक है तो निश्चित ही उसे इसपर तो कोई संदेह नही होगा के ईश्वर तो 'सर्वज्ञ' है!
हाँ भावावेग में तो कुछ भी प्रश्न पूछा जा सकता है वो अलग बात है!
भाई सोमेश कुमार जी, आभार.
आपकी रचना पढ़ते हुए ४ आश्रमों का ख्याल आया....बचपन में/यौवन में तो इतने प्रश्न मन में नहीं उठते थे.... अब कोई भी प्रश्न जो हल नहीं होता, उसे समर्पण भाव से भगवान को सोंप देता हूँ .... शांति मिल जाती है। आपकी रचना ने सोचने को बहुत कुछ दिया। हार्दिक धन्यवाद।
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