चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
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याद मुझे वो अक्सर ही आ जाती है
चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
आग चढ़ी वो दूध भरी काली मटकी
वो मिठास अब कहाँ कहीं मिल पाती है
वो कुतिया जो संग आती थी खेतों तक
उसके हिस्से की रोटी बच जाती है
छुपा छुपव्वल वाली वो गलियाँ सँकरीं
दिल की धड़कन , यादों से बढ़ जाती है
डंडा पचरंगा खेले जिस बरगद में
ख़्वाबों में उसकी डाली आ जाती है
शाला की मेरी कुर्सी वो टूटी सी
कलम पट्टियाँ ले कर मुझे बुलाती है
ज़िन्दा रखना गाँव सदा अपने अन्दर
खुश्बू अमराई की आ समझाती है
धुयें धूल से भरी सड़क से पूछूँगा
क्या गाँवों की पगडंडी तक जाती है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका आभार !!
एक तरह से आपका कहना उचित है , काफिया के दुहराव से शब्द भंडार की कमी का एहसास होता है । लेकिन जाती को मै इस लिये सीकार कर लिया हूँ क्यों कि , जाती कहीं भी अकेली क्रिया नहीं है , आ जाती , बच जाती , बढ़ जाती आदि है । बस इसी लिये स्वीकार कर लिया हूँ !
साँसों में रची बसी गाँव की खुशबू को..... शब्दों में बहुत खूब ढाला है आ० गिरिराज जी
बहुत बहुत बधाई
धुयें धूल से भरी सड़क से पूछूँगा
क्या गाँवों की पगडंडी तक जाती है.............बहुत सुन्दर
आदरणीय शरी सुनील भाई , उत्साहवर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीय निर्मल नदीम भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय गिरिराज सर बहुत ही बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है
पुरानी यादों को अशआर से जीवित कर दिया
इस सौंधी माटी की खुशबू से भरपूर ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई
बस एक बात समझ नहीं आई, आपने पांच अशआर में जाती काफिया लिया है, एक ही ग़ज़ल में दुहराव से ग़ज़ल में अजीब सी कमी महसूस हो रही है जबकि सहज काफिया उपलब्ध है. कृपया मार्गदर्शन प्रदान करने की कृपा करें.
क्या कहने आदरणीय बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई है गाँव की मीठी यादों को सजाकर पेश किया आपने।
बहुत मज़ा आय पढ़कर। बहुत सारी दाद हाज़िर करते हुए मुबारकबाद देता हूँ।
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