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ग़ज़ल (जशन-ए-ग़म) दीपक शर्मा कुल्लुवी

(जशन-ए-ग़म)

हम फकीरों को मुहब्बत के सिबा कुछ आता नहीं
हम बहलाते हैं दुनियाँ को कोई हमें बहलाता नहीं

अश्क तो पागल हैं कुछ सोच के निकल आते हैं
और कुछ ऐसा भी नहीं की कोई याद हमें आता नहीं

हम वफ़ा करते रहे और जख्म दिल पे खाते रहे
कोई लाख चाहे यादें फिर भी भुला पाता नहीं

कौन 'दीपक'कैसा ' कुल्लुवी' सब खो जाएँगे
पैगाम अपनी मौत का कोई खुद को सुना पाता नहीं

कोई शिकवा नहीं अपनों से न गिला तुझ से
हम बुलाते हैं खुदा तुझको पर तू आता नहीं

बंदिशें मेरी नहीं तेरी ही होंगी शायद
वर्ना तू भी रोता साथ मेरे,मुस्कुराता नहीं

हम चले जाएँगे दुनियाँ से मुस्कुराते हुए
कोई मुझसा जशन-ए-ग़म मना पाता नहीं


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Comment by Deepak Sharma Kuluvi on April 5, 2011 at 9:46am

SHUKRIYA.....SUJHAV SAI AANKHON PAR

 

KULUVI


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 4, 2011 at 9:01pm

अच्छा प्रयास है , कहन बढ़िया है ,

 

कौन 'दीपक'कैसा ' कुल्लुवी' सब खो जाएँगे
पैगाम अपनी मौत का कोई खुद को सुना पाता नहीं

 

इस शेर को अंत में रखे , क्यू की तखल्लुस का शेर (मकता) अंत में रखने का चलन है | दाद कुबूल करे |

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