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गीत - होली कैसे खेलूँ

मैं होली कैसे खेलूँ रे
साँवरिया तोरे संग
बादल अपनी पिचकारी से
रंग भंग कर जाते हैं
रखा गुलाल धुंध उड़ती है
राग जंग कर जाते हैं
कोई रोको इस धरती की
हरियाली हो गई तंग
मैं होली कैसे .............. ।
सूरज ने आँखें ना खोलीं
सिमटा उसका ताप
तारों की झिलमिल रंगोली
गायब अपने आप
कहीं सिमट बैठे हैं सारे
रंग बिरंगे रंग
मैं होली कैसे खेलूँ रे
साँवरिया तोरे संग ।

पूनम शुक्ला
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2015 at 3:59pm

इस आश्वस्तिकारी प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया.
गीत मनभावन है. वैसे मुखड़े के माध्यम से उभरे प्रश्न के इंगित अंतरे में होते तो गीत और प्रासंगिक हो सकता था. आगे, गीति-काव्य के प्रतिमानों को भी देखते समझते रहें.
इस प्रयास के आलोक में आपसे अपेक्षाएँ बढ़ी हैं.
शुभ-शुभ

Comment by Pari M Shlok on March 4, 2015 at 1:46pm
हार्दिक बधाई आदरणीया पूनम जी..सुन्दर रचना

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 8:58pm

होली के विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से सुन्दर भावाभिव्यक्ति हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया पूनम जी 

Comment by somesh kumar on March 3, 2015 at 7:51pm

बेमौसम की बरसात से होली में आए व्यवधान को इंगित करती और मन की खिन्नता की अभिव्यक्त करती एक सुंदर कोशिश 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 3, 2015 at 7:17pm

पूनम जी

सुन्दर रचना i

सूरज ने आँखें ना खोलीं
सिमटा उसका ताप
तारों की झिलमिल रंगोली
गायब अपने आप
कहीं सिमट बैठे हैं सारे
रंग बिरंगे रंग

Comment by maharshi tripathi on March 3, 2015 at 4:29pm

अच्छी ,,भावपूर्ण कविता हेतु आपको सादर बधाई आ.पूनम जी |

Comment by Hari Prakash Dubey on March 3, 2015 at 2:06pm

आदरणीया पूनम शुक्ला जी , सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई आपको ! सादर 

Comment by Shyam Narain Verma on March 3, 2015 at 1:23pm
भावो  से ओत प्रोत इस रचना के लिए  हार्दिक धन्यवाद i 
होली की शुभ कामनाएँ

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