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ठसक तेरी मेरी गैरत के आपस में उलझने से
मुहब्बत लुट गयी अपनी दिलों में जह्र पलने से
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दगाबाजी से अच्छा तो अलग होना मुनासिब था
बफाओं के बिना क्या है सफर में साथ चलने से
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मेरा घर अपने हाथों से कभी मैंने जलाया था
नहीं लगता मुझे अब डर किसी का घर भी जलने से
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तू पत्थर है मुझे हरबार चकनाचूर करता है
मैं सीसा हूँ मुझे अफसोस क्या होगा बिखरने से
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रहा ता- उम्र मैं हर्फे-गलत बेज़ार सा यारो
सुकूँ मिलने लगा है अब मुझे तनहाई मिलने से
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उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
गजल को पसन्द किया आपका तहेदिल से आभार Dr. Vijai Shanker जी
गजल को पसन्द किया आपका तहेदिल से आभार Shyam Narain जी
गजल को पसन्द किया आपका तहेदिल से आभार gumnaam pithoragarhi जी
बहुत खूब सर जी,,,,,,,,,,,,,,, अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई
उम्दा गज़ल के लिए ढेरों मुबारकबाद .... |
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