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ग़ज़ल - उजाले कैद हैं कुछ मुट्ठियों में

OBO पर आकर बहुत अच्छा लगा. यहाँ पर एक से एक उस्ताद शायर और कवियों की रचनाएं पढ़कर आनंद आ गया.
अपनी एक नयी ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ, आप सब से मार्गदर्शन की आशा है.


अँधेरा है नुमायाँ बस्तियों में
उजाले कैद हैं कुछ मुट्ठियों में

ये पीकर तेल भी, जलते नहीं हैं
लहू भरना ही होगा अब दीयों में

फ़लक पर जो दिखा था एक सूरज
कहीं गुम हो गया परछाइयों में

तेरी महफ़िल से जी उकता गया है,
सुकूँ मिलता है बस तन्हाईयों में

लिए जाता हूँ कश, मैं फिर लिए हूँ
तेरी यादों की 'सिगरेट' उँगलियों में

उतरना ध्यान से दरिया में 'साहिल'
मगरमच्छ भी छुपे हैं, मछलियों में

 

--- संदीप 'साहिल'

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Comment by विवेक मिश्र on March 16, 2011 at 8:31pm

/लिए जाता हूँ कश, मैं फिर लिए हूँ
तेरी यादों की 'सिगरेट' उँगलियों में/

वाह साहिल साहब..! हरेक शे'अर उम्दा. विशेषकर ऊपर लिखा शे'अर तो लाजवाब लगा. दाद कबूलें.

कृपया ध्यान दे...

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