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व्यंग्य - महंगाई का निचोड़पन

महंगाई का सिर दर्द लोगों में खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। कोई दवा भी काम नहीं आ रही है और सरकार की अधमने उछल-कूद भी बेकार साबित हो रही है। एक समय दाल, भोजन की थाली से गायब हो गई। फिर बारी आई, प्याज की। प्याज ने तो इस तरह खून के आंसू रूलाए, जिसे न तो जनता भूल पाई है और न ही सरकार। जनता तो जैसे-तैसे प्याज के सदमे से उबर रही है, मगर सरकार, प्याज के दंभी रूख के कारण अभी भी विपक्ष के निशाने पर है। बेसुध महंगाई को चिंता ही नहीं कि सरकार से उसकी दुश्मनी, जनता पर कितनी भारी पड़ रही है ? सरकार के लिए तो महंगाई, डायन ही बन गई है। महंगाई इसलिए फिक्रमंद नहीं है कि कोई साथ चले न चले, किन्तु विपक्ष तो हमेशा साथ ही चलेगा। वह जनता के सीने पर खूब अठखेलियां खेल रही हैं और मुंह भी चिढ़ा रही हैं, जाओ मेरा जो बिगाड़ना है, बिगाड़ लो ? सरकार भी मुंह बांधे बैठी नजर आ रही है, क्योंकि महंगाई डायन की काली छाया उतरने का नाम नहीं ले रही है। जनता भी हलकान है, नजर उतारने के लिए नीबू माला की जुगत भिड़ाते तो उस पर भी महंगाई की नजर लग गई है ?


महंगाई का दंश यहीं नहीं थमा है, वह अब भी पूरी तरह ऐंठ रही है और यह जताने की कोशिश कर रही है कि उसकी बस चले तो वह सरकार की कुर्सी का पाया भी कमजोर कर दे। महंगाई के तेवर से सत्ता की कुर्सी हिली जरूर है और उसकी रहनुमाई से एक पक्ष में आस जगी है कि चलो, सियासत का रास्ता कुछ तो आसान हो रहा है ? कुर्सी की लड़ाई भी अजीब लगती है, क्योंकि महंगाई बढ़ने से एक पक्ष परेशान तथा हताश है तो दूसरा पक्ष, इस बात की खुशी मना रहा है कि महंगाई, आज नहीं तो कल सत्ता की चाबी जरूर साबित होगी। महंगाई भी सोच रही है कि चलो, इसी बहाने कुछ पूछ-परख तो हो रही है, नहीं तो लोग उसे ऐसे भूल जाते हैं, जैसे खुशियों के दौर में भगवान को ? चीजों के दाम आसमान पर होने के बाद भी महंगाई, डायन कहलाकर भी इतरा रही है और सोच रही है कि नाम सुनकर ही लोगों के माथे पर पसीना आ जा रहा है।


महंगाई की मार इतनी पड़ी कि क्या ठंड और क्या गर्मी ? सब दिन एक बराबर होकर रह गया है, क्योंकि कड़कड़ाती ठंड के बाद भी जैसे ही महंगाई का नाम आता है, जेब की गर्मी भी शांत पड़ जाती है। जेब का जितना भी मुंह खोलो, महंगाई के आगे कम पड़ ही जाता है। ऐसा लगता है कि जैसे महंगाई का मुंह सुरसा की तरह बढ़ रहा है और यही हाल रहा तो डायनासोर का मुंह भी छोटा रह जाएगा। ठंड के बाद अब गर्मी शुरू हो गई है, फिर भी महंगाई की बेरूखी व गरमाहट जारी है। मौसमी और महंगाई की गर्मी से जनता इस कदर पस्त हो गई है, जहां एक सहारा नजर आता है, वह है नीबू। एक बात है कि नजर उतारने के लिए नीबू की माला लगाई जाती है, लेकिन महंगाई डायन पर नीबू का कोई असर नहीं हो रहा है। नीबू भी बेबस बनकर रह गया है और महंगाई भी नीबू की तरह जनता को निचोड़ रहा है। बेचारी जनता इस तरह मारी जाती है, जहां वह न इधर की होती है, न उधर की। महंगाई के कारण गरीब जनता, उंचे दाम पर बिकने वाली चीजों को केवल देख सकती है। निहारने की पूरी आजादी है, मगर खरीदने की नहीं, क्योंकि महंगाई के निचोड़पन से जनता पस्त हो गई है। इस तरह सुस्ती पर चुस्ती कैसे आएगी, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है... सरकार बता पाए तो उन्हीं से पूछिए ?


राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं

जांजगीर, छत्तीसगढ़
मोबा - 098934-94714

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